छ की छकास....
हम सुखन फ़हम हैं ’ग़ालिब’ के तरफ़दार नहीं
देखें कह दे कोई इस सेहरे से बढ़ कर सेहरा
[अब इस शे’र के पीछे भी एक क़िस्सा है । किस्सा-अल-मुख़्तसर यूँ है कि मुगलिया सल्तनत के आख़िरी चिराग बहादुर शाह ज़फ़र ,जो कि खुद एक शायर थे और ज़ौक़ -उनके उस्ताद थे। बहादुरशाह ज़फ़र के पुत्र ’जवांबख़्त’ की शादी में ;ग़ालिब’ ने यह सेहरा पढ़ा था जिसके जवाब में बहादुर शाह ने फ़ौरन अपने उस्ताद ’ज़ौक़’ को पकड़ बुलावा भेज कर बुलाया और इसी मुकाबले का सेहरा लिखने को कहा] सुधी पाठक अब तक इस किस्सा का मतलब तो समझ गये होंगे। जो अब तक न समझे हों तो उनको स्पष्ट कर दूं ,उस मुकाबले में फ़ैसला क्या हुआ ,वो तो इतिहास की बात है ।अब ज़ौक़ साहब तो रहे नहीं तो सोचा ,इस ’छ’ का छत्ता हम ही खोल देते हैं]
पहले तो मुझे इस बात की हैरत हुई कि हिन्दी वर्ण-माला के इतने विशाल भण्डार के होते हुए मित्र महोदया ने मात्र छ ही क्यों चुना क. ख.. ग चुन सकती थी ।.च. से भी बहुत कुछ लिखा जा सकता था
3-दिन की माथा-पच्ची के बाद मालूम हुआ कि आप को "छप्पन-भोग’ से ज़्यादा लगाव है । अगर क से लिखती तो कलाकन्द ,ख से लिखती तो खीर मोहन ग से लिखतीं तो गाजर का हलुवा घ से लिखती तो घेवर ड. से तो हिन्दी वर्ण माला में आज तक न कुछ बन सका तो मिठाई क्या बनती ।हां ! च से चमचम ज़रूर बन जाता है । मगर ये सब एकल मिठाई ही बनती ,छप्पन भोग कहाँ बनता --शायद ये भी एक कारण रहा हो उनके छ चुनने का।
अगर छ्प्पन भोग खाते खाते ,AK-56 [छप्पन]याद आ जाये तो सारी मिठास छू मन्तर हो जायेगी।और यह भी सही है कि रोज़ रोज़ छप्पन भोग खाते रहिएगा तो छप्पन रोग बहत्तर बाई भी हो सकती है ।
हमारा क्या ! छ्टांक चून नहीं ,चौबारे रसोई करते रहते हैं । कभी कभी तो छप्पर पर फूस नहीं ड्यौढ़ी पर नक्क़ारा बजवा देते हैं, शान बनी रहती है। अब आप यह न कहना कि मैं छोटा मुँह और बड़ी बात कह रहा हूं। हर आदमी छोटा सो खोटा नहीं होता और न ही छोटा सो मोटा होता है । अरे! वो तो हिन्दी वालों नें तुकबन्दी भिड़ा कर मुहावरा बना दिया। भला ऐसे भी कोई मुहावरा बनता है ।मुहावरा तो मेरे चाचा छन्नू चौबे बनाते थे।कहते थे अरे ! इस छाछ में अभी भी मख्खन बाक़ी है ।यह बात अलग है कि यह मुहावरा किताबों मे स्थान नहीं पा सका और न अब पाने की उम्मीद है । अब उनका बेटा ! बड़े मियां तो बड़े मियां छोटे मियां सुबहान अल्ला।,बालू में से तेल तो निकाल लेता है ,नेता होकर भी आज तक छाछ से मख्खन न निकाल सका। सुना है कि एक बार यही करने दिल्ली गया था चौबे जी छब्बे बनने गये थे कि दूबे बन कर गाँव लौट आये। अब छूटी घोड़ी भुसौले खड़ी। अब छूछा बने फिरता है । छूछे को कोई न पूछे।अब दिन भर चाची की छाती पर मूँग दलता रहता है रोज़ की किच किच से चाची की छाती छलनी हो जाती है।भाई साहब ने ठीक से पढ़ाई नही की। छड़ी लगी होती तो चट से विद्या आती।
कल एक मनचले ने एक लड़की को देख कर यूँ ही बोल गया -छछून्दर के सिर पर चमेली का तेल। भाई साहब खुद ही छछून्दर थे ।अपने को छुपा रुस्तम समझ रहे थे। लड़की भी कम न थी ,वो मरम्मत की कि छठी का दूध याद आ गया होगा। लड़्की कहती रही -छठी के पोतड़े अभी धुले नहीं कि चला है छेड़ने। भाई साहब का छठी का सारा खाया पीया निकल गया
और जब दो सास आपस में मिलती हैं तो ज़ाहिर है कि भारत-पाकिस्तान की बात तो करेगी नहीं । उनकी बात ही बहू [सीरिअल वाली बहू नहीं] से शुरु होती है और घूम फिर कर वहीं पे खत्म हो जाती है।एक कह्ती है -अरे मेरी तो बस छीलै चार ,बघारै पाँच । मेरी वाली तो बस पूछो मत छूट भलाई ,सारै गुन। छह महीने चिल्लानी .लड़का एक न बियानी।
अब बहू बिचारी भी क्या करे! छूरी पे खरबूजा ,या खरबूजे पे छूरी कटना तो उसी को है।मगर जवाब सासू जी उसी अन्दाज़ में [मनोगत]देती है-हूँ ! छावत मड़ँवा ,गावत गीत ,पिया बिन लागत सब अनरीति।
ये तो ्बस छूछे फटके ,उड़ी उड़ी जाय
कल शर्मा जी सुबह ही किसी काम से जैसे निकले कि वर्मा जी ने एक जोरदार छीक मारी। शर्मा जी किसी अनहोनी से घबरा गये कि इस वर्मा स्साले का नाक ही काट लें
सम्मुख छींक लड़ाई भाखै
छींक दाहिने द्रव्य विनाशै
ऊँची छींक कहे जयकारी
नीची छींक होय भयकारी
अब शर्मा जी इसी पंचांग विचार में लग गये कि ये वर्मा का बच्चा छींका किधर से है?
छह पर तो बहुत कुछ कहा जा सकता है } वो महोदया जी ने छोड़ चले बंजारे की आग जैसी कुछ कर दे तो हम भी कुछ छौंक लगा दिए वरना हम क्या है छोटे से ग़ाज़ी हैं लम्बी सी दुम है
अस्तु
आनन्द पाठक,जयपुर
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