गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

व्यंग्य 33 : एक लघु कथा : चार लाठी

व्यंग्य लघुकथा 09 : चार लाठी
----उनके चार लड़के थे।  अपने लड़कों पर उन्हे बड़ा गर्व था। और होता भी क्यों न । बड़े लाड़-प्यार  और दुलार से पाला था । सारी ज़िन्दगी इन्हीं लड़को के लिए तो जगह ज़मीन घर मकान करते रहे और पट्टीदारों से मुकदमा लड़ते रहे, खुद वकील जो थे ।
गाँव जाते तो सबको सुनाते रहते -चार चार लाठी है हमारे पास ।ज़रूरत पड़ने पर एक साथ बज सकती है ।  परोक्ष रूप से अपने विरोधियों को चेतावनी देने का उनका अपना तरीका था। जब किसी शादी व्याह में जाते तो बड़े गर्व से दोस्तों और रिश्तेदारों को सुनाते -चार चार लाठी है मेरे पास -बुढ़ापे का सहारा।
 इन लड़को को पढ़ाया लिखाया काबिल बनाया और भगवान की कृपा से चारो भिन्न भिन्न शहरों में जा बसे और अच्छे कमाने खाने लगे ।
  समय चक्र चलता रहा जिसकी जवानी होती है उसका बुढ़ापा भी होता है।लड़के अपने अपने काम में व्यस्त रहने लगे । लड़को का धीरे धीरे गाँव-घर आना जाना कम हो गया । समय के साथ साथ गाँव-घर छूट भी गया।पत्नी पहले ही भगवान घर चली गई थी अब अकेले ही घर पर रहने लगे थे -अपने मकान को देखते ज़मीन को देखते ,ज़मीन के कागज़ात को देखते जिसके लिए सारी उम्र भाग दौड की-इन बच्चों के लिए। शरीर धीरे धीरे साथ छोड़ने लगा और एक दिन उन्होने खाट पकड़ ली...अकेले नितान्त अकेले... सूनापन...कोई देखने वाला नहीं--कोई हाल पूछने वाला नहीं...लड़के अपने अपने काम में व्यस्त...कोई उनको अपने साथ रखने को तैयार नहीं ...लड़को को था कि उन्हें अपनी ज़िन्दगी जीनी  है..."बढ़ऊ’ को  आज नहीं तो कल जाना ही है अपने साथ रख कर क्यों अपनी ज़िन्दगी में खलल करें।
-- हफ़्तों खाट पर पड़े रहे ... मुहल्ले वालों ने चन्दा कर ’अस्पताल’ में भर्ती करा दिया। चारों लड़के खुश और निश्चिन्त  हो गये -’पापा की सेवा करने वाली मिल गई-नर्से सेवा करेंगी।  --कोई लड़का न ’पापा’ को देखने गया और न अपने यहाँ ले गया ।वही हुआ जो होना था और एक दिन ’पापा’भी  शान्त हो गये....
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-कल तेरहवीं थी । चारों लड़के आये थे। एक साथ इकठ्ठा हुए थे पहली बार।
’भईया ! बड़े "संयोग’ से एक साथ इकठ्ठा हुए है हम सब। फिर न जाने कब ऐसा मौका मिलेगा ।’पापा’ का तो फ़ैसला हो गया। जगह ज़मीन का भी फ़ैसला हो जाता तो ....." -छोटे ने सकुचाते हुए प्रस्ताव रखा -बहुओं ने हामी भरी।

मगर .....फ़ैसला न हो सका --चारों ’लाठियां’ औरों पर क्या बरसती आपस में ही बज़ने लग गईं।

-आनन्द.पाठक-
09413395592

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

व्यंग्य 32 : लघु कथा : चुनावी जुमला


---- पण्ड्ति जी आँखें मूँद,बड़े मनोयोग से राम-कथा सुना रहे थे और भक्तजन बड़ी श्रद्धा से सुन रहे थे। सीता विवाह में धनुष-भंग का प्रसंग था-
पण्डित जे ने चौपाई पढ़ी
"भूप सहस दस एक ही बारा
लगे उठावन टरई  न टारा "

- अर्थात हे भक्तगण ! उस सभा में "शिव-धनुष’ को एक साथ दस हज़ार राजा उठाने चले...अरे ! उठाने की कौन कहे.वो तो ...
तभी एक भक्त ने शंका प्रगट किया-- पण्डित जी !  ’दस-हज़ार राजा !! एक साथ ? कितना बड़ा मंच रहा होगा? असंभव !
पण्डित जी ने कहा -" वत्स ! शब्द पर न जा ,भाव पकड़ ,भाव । यह साहित्यिक ’जुमला’ है । कवि लोग कविता में प्रभाव लाने के लिए ऐसा लिखते ही रहते है"
भक्त- " पर तुलसी दास जी ’हज़ारों’ भी तो लिख सकते थे ....। "दस हज़ार" तो ऐसे लग रहा है जैसे "काला धन" का 15-15 लाख रुपया सबके एकाउन्ट में
      आ गया
पण्डित जी- " राम ! राम ! राम! किस पवित्र प्रसंग में क्या प्रसंग घुसेड़ दिया। बेटा ! 15-15 लाख रुपया वाला ’चुनावी जुमला" था । नेता लोग चुनाव में प्रभाव लाने के लिए "चुनावी जुमला ’ कहते ही रहते हैं । ’शब्द’ पर न जा ,तू तो बस भाव पकड़ ,भाव ......

"हाँ तो भक्तों ! मैं क्या कह रहा था...हाँ- भूप सहस द्स एक ही बारा’----- पण्डित जी ने कथा आगे बढ़ाई..

-आनन्द.पाठक
09413395592

शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2015

व्यंग्य 31: एक लघु कथा : गिद्ध दॄष्टि

एक लघु व्यथा : गिद्ध दॄष्टि

----  वह अपनी माँ के चार बेटों में सबसे छोटा बेटा था ।  माँ ने बड़े प्यार दुलारा से पाला था कि उसका बेटा डाक्टर बन जाय ।  माँ के आशीर्वाद से वह डाक्टर बन भी गया
... जीवन के आखिर में माँ को "लकवा" मार गया और वो शैया ग्रस्त हो गईं। 3-महीने तक खाट पर पड़ी रही ,उठ बैठ नहीं सकी, पर आँखे निरन्तर राह देखती रही  कि "छुट्ट्न" एक बार आ जाता तो देख लेती....खुली आंखें हर रोज़ छत  निहारती रही ....मगर ’वह’ नहीं आया ।

एक ही बहाना -कार्य की व्यस्तता।---वह पिछले 2-साल से एक  "बुढ़िया’ की प्राण-प्रण से सेवा कर रहा था क्योंकि उस "बुढिया’ के पास 3-कठ्ठा ज़मीन का टुकड़ा था और उस की कोई सन्तान नही थी।

... प्रतीक्षा करते करते आखिर उसकी माँ ने एक दिन आँखें मूद ली । माँ की ’तेरहवीं’ में आया मगर ’ब्रह्म भोज’ खाने से पहले ही फ़्लाइट से वापस चला गया।कारण वही -कार्य की व्यस्तता। उसे मालूम था घर की ज़मीन तो बँटवारे में मिलेगी ही मिलेगी ,जो मर गया उसको कौन रोये जो मरने जा रही है उसको पकड़ो।

---कुछ दिनों बाद वो ’बुढ़िया" भी मर गई । उसने  बुढ़िया के मरने से पहले वह ज़मीन अपने नाम लिखवा ली थी ।

वह लड़का ’गिद्ध’ तो नहीं था ,मगर - ’गिद्ध-दॄष्टि’-ज़रूर थी।

-आनन्द.पाठक-


बुधवार, 11 फ़रवरी 2015

व्यंग्य 30 : लघु कथा: मेढक और बैल

एक लघु व्यंग्य कथा- 06

.......... नेता जी ने तालाब का उद्घाटन कर दिया। तालियां बजने लगीं।किनारे पर बैठा मेढक, मारे डर के छपाक से पानी में कूद गया
तालाब में मेढक के साथियों ने पूछा- क्या हुआ?  घबराए हुए क्यों हो?
मेढक - मैने एक नेता देखा
अन्य मेढक ने पूछा  - नेता कैसा होता है?
मेढक - बड़ी बड़ी तोंद होती है ।सफ़ेद खादी का कुर्ता पहनता है । टोपी पहनता है और पहनाता है
अन्य मेढक ने पूछा- खादी कैसा होता ?
मेढक -सफ़ेद होता है
अन्य मेढक - तोंद कैसी होती है ?
इस बार मेढक सावधान था .।उसे मालूम था कि पिछली बार उस के पिताश्री इन्ही मूढ़ मेढकों को "बैल" का आकार समझाने के चक्कर में पेट फुला फ़ुला कर समझा रहे थे कि मर गए  । इस बार का मेढक समझदार था।
मेढक ने कहा - तुम सब मेढक के मेढक ही रहोगे। बाहर चल कर देख लो कि नेता का तोंद कैसा होता है?
सभी मेढक टर्र टर्र करते उछलते कूदते नेता जी का तोंद देखने किनारे आ गये ।मगर नेता जी उद्घाटन कर वापस जा चुके थे
मेढको ने कहा -नेता का तोंद कैसा होता है?
इस बार मेढक पास ही बैठे जुगाली करते हुए सफ़ेद साढ़  की पीठ पर उछल कर जा बैठा और बोला-"ऐसा"
तभी से सभी मेढक ’जुगाली करते साँढ़’ को ही ’नेता’ का पर्याय मानने लगे ।
वो मेढक कुएँ के मेढक नहीं थे ।

-आनन्द पाठक-
09413395592