मंगलवार, 6 अक्तूबर 2020
एक व्यंग्य 76: किस्सा-ए-शालीनता
किस्सा-ए-शालीनता
[सन्दर्भ ...... जब कभी ,मेरे जैसा कोई नवोदित लेखक यह कहें कि मैं गरीब हूँ , अदना हूँ , आप का सेवक हूँ --दीन हूँ-- हक़ीर हूँ-- फ़कीर हूँ या यह कहें कि कभी मेरे ग़रीबखाने पर आएं या फिर कब्र में पैर लटकाए यह कहें कि भइए ! मैं तो अभी तो लिखना सीख रहा हूँ । तो ये उनकी विनम्रता है, शालीनता है । आप उनका शील-संकोच भी समझ सकते हैं।जब कि आजतक उन्होनें कभी किसी को घास न डाली होगी । सीधे मुंह बात न की होगी ।जब वो यह कहें कि आप उन्हें अपने चरणों का धूल समझिए तो यह उनकी लगभग ’दण्डवत’-स्तर की विनम्रता है ।और जब वो यह कहें कि ’आप के चरण किधर है प्रभु !" -तो समझिए कि यह उनकी विनम्रता की पराकाष्ठा है ।
इसीलिए मैं अपने पाठकों से बार बार पूछता रहता हूँ -"आप के चरण किधर है प्रभु !"
एक बार फिर आप को याद दिला दूं कि यह गम्भीर लेखन नहीं है.....कहीं बाद में आप ये न कहें -’अरे ! हमें तो आप ने पहले बताया नही” ..।सो बता दिया ।
आप तो बस पढ़िए--- पढ़ते रहिए --हँसिये,.....,हँसते रहिए ।
अब आप कहेंगे कि क्या ये एक भाई साहब ...दूसरे भाई साहब..तीसरे भाई साहब लगा रखा है।.सीधे सीधे नाम क्यों नहीं ले लेते...? नहीं, ’राजनीति’ में और ’कूटनीति’ में कोई सीधे सीधे नाम नहीं लेता। ..बस समझने वाले समझ जाते हैं। जैसे एक नेता जी ने अपने भाषण में कहे कि " हमारे देश से दक्षिण दिशा का एक देश ’तमिलों" की समस्याओं को सुलझाने हेतु कोई कारगर कदम नहीं उठा रहा है ,तो मतलब साफ़ है । नाम नहीं लिया ..मगर समझने वाले समझ गये, ।वह दक्षिण दिशा का देश, अफ़्गानिस्तान में तो होगा नहीं ।
खैर ,एक क़िस्सा और सुना कर मूल बात पर आते हैं ।
एक बार एक सड़क पर एक शराबी जोर जोर से चिल्ला रहा था --प्रधान मन्त्री निकम्मा है ..प्रधानमन्त्री निकम्मा है.
हां, तो अब मूल बात पर आते हैं ।
जी बिल्कुल सही।आज भी भारत के कुछ कवि या शायर अपनी कविता, विनम्रता से ही शुरु करते हैं ।नाम बताऊँ क्या ? नाम क्या बताना ।,आप समझ तो गए होंगे । उनकी मान्यता है कि वृक्ष जितना ही फलदार होता है उतना ही झुकता है । अत: वह झुक रहे हैं ।बरअक्स ,वो समझते हैं कि वो जितना झुकेगे ,श्रोता उन्हें उतना ही ’फलदार’ समझेंगे ।.वह.और झुकते हैं । झुकते झुकते , विनम्र होते होते , दीन होते होते ,दीन से हीन, हीन से दयनीय. दयनीय से दयनीयता की स्थिति तक पहुँच जाते हैं । अपनी ग़ज़लों के लिए ,कविताओं के लिए तालियॊ की भीख माँगते हैं । मंच के आयोजकों की शर्त पर कविता / ग़ज़ल पढ़ते है । भइए ! सत्ता पक्ष की टाँग खीचनी है कि विपक्ष के लिए पढ़ना है ?आप बताएँ? मेरी ’लेखनी’ स्वतन्त्र है ।
बात तूँ.. तूँ..मैं ..मैं- पर आ जाती है । शालीनता का चोला जल्द ही उतार फेंकता है । कृत्रिमता का लबादा बहुत देर तक नहीं ओढ़ा जा सकता ।’दीन-दीनता-शालीनता से उनका उतनी ही देर तक का वास्ता है जितनी देर तक उनके शे’रों पर तालियां बजती रहती है ...।.
यह भारतीय संस्कृति है । बचपन से सिखाया जाता है, अपने को छोटा समझना ,अहम नहीं करना ,घमण्ड नहीं करना, विनम्र रहना ,शालीन रहना। बताया जाता है -- ’घमण्डी का सिर नीचा होता है -रावण का उदाहरण देकर डराया भी जाता है ।मगर वही आदमी जब बड़ा बन जाता है ,ज्ञानी हो जाता है तो आधी ज़िन्दगी अपने को बड़ा समझने में गुज़ार देता है और आधी ज़िन्दगी दूसरे को छोटा समझने में।
किसी ने अपने मित्र से कहा -’बड़ा प्यारा बच्चा है आप का !
एक भाई साहब ने अपने कुछ मित्रों को अपने यहां भोजन पर आमन्त्रित किया ।
सभी मित्र एक एक कर पहुँच रहे थे और कह रहे थे -’बड़ा शुभ काम किया..ऐसी दावत हर महीने होती रहनी चाहिए।
मेज़बान महोदय हर आगुन्तकों से अति विनम्र हो कर स्वागत कर रहे थे -"बस ! सब आप के चरणों की कृपा है ... बस आप के चरणों की कृपा है....
कभी कभी ये विनम्रता अनजाने में मंहगी भी पड़ जाती है ।
’श्री सत्यनारायण व्रत कथा’ तो आप सब ने सुना होगा ।मैं साधु नाम बनिए की बात कर रहा हूँ । मँहगी पड़ गई उसको उसकी विनम्रता ।
संक्षेप में बता देता हूँ -जब ’डंडी महराज ने साधु नाम बनिये से [उसके मन की शुद्धता जाँच करने के लिए] कुछ दान-दक्षिणा की माँग की तो साधु नाम बनिये ने अति विनम्र हो कर कहा -’महात्मन ! इस जलपोत में क्या है? ’लता-पत्रादि’ भरा है। .मैं क्या दान दे सकता हूँ ?
फिर क्या हुआ। जलपोत के सारे हीरा-जवाहरात-सोना चाँदी आदि, ’लता पत्रादि’ में बदल गए ।
अब आप पूछेंगे कि शायर लोग अइसा काई कू बोलता है ?
वह जानता है ,जब वो मंच पे अपनी ग़ज़ल पढ़ेगा तो इधर-उधर से कुछ फ़िक़रे-जुमले आयेंगे। अपनी कविता/ग़ज़ल पर भरोसा नहीं है तो इसी विनम्रता का ’बुलेट प्रूफ़ जैकेट ’पहन लेता है ।-लो अब करो टिप्पणी । भाई जान मैने तो पहले ही कह दिया है कि मुझे ’ग़ज़ल’ की ’ग़’ भी नहीं आती ..बस मैं तो अभी सीख रहा हूँ । ग़ज़ल से मुहब्बत है । अदब-आश्ना हूँ॥ भावना से लिखता हूँ । गीत में छन्द आदि नही ,भावनाओं का ज्वार देखिए ।सो आ गया।
> भईया हम कोई उस्ताद तो हैं नहीं ,बस आप लोगों की ज़र्रा नवाज़ी है कि इस खाकसार को ये इज़्ज़त बख्शी है [उस्ताद बन जायेगा तो पोल खुल जायेगी क्या ? किसने रोक रखा है भाई आप को उस्ताद बनने से "]
ख़ता बख़्श तो गर ख़ता हो गई
अस्तु
एक व्यंग्य 75 :चुनाव और तालाब का पानी
चुनाव और तालाब का पानी
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं
-"किस किस तालाब का पानी बदलोगे ? कितना बदलोगे ? यहाँ तो हर तालाब का पानी गँदला हो गया है। फूल कुम्हला रहे हैं"
"हा हा हा हा"- ! मिश्रा जी ने रावण की तरह वो अठ्ठहास किया कि मैं डर गया । अरे इस मिश्रा को अचानक क्या हो गया ? इतना जोर जोर से क्यों हँस रहा है? अभी तक तो अच्छा भला आदमी था।
मेरी "यही बुरी आदत’ वाली बात पे मिश्रा जी को लग गई और नाराज़ हो गए । शाप देते हुए कहा --’जाओ खड़े हो जाओ ! एक वोट भी न मिलेगा तुम्हें।
-’3-वोट तो पक्का है । एक तुम्हारा ,एक मेरा और एक श्रीमती जी का’ ।
खड़ा होने का प्रोग्राम अभी स्थगित। अब 2024 में देखेंगे।दुष्यन्त जी से क्षमा-याचना सहित
अस्तु
-आनन्द पाठक-
एक व्यंग्य 74:---कीचड़ फेंकना---
---कीचड़ फेंकना,,,,
कहीं कहीं इसके पर्याय में ’कीचड़ उछालना’ भी प्रयोग होता है । ’कीचड़ में लात मारना’ कम ही प्रयोग होता है ।इसके पर्याय में ’गोबर में लात मारना’ ज़्यादे प्रभावकारी लगता है सो चलता है । हो सकता है अन्य अंचल में कोई अन्य ’आंचलिक’ प्रयोग होता हो। कीचड़ पर बात चली तो ’कीचड़ में लोटना’ भी एक प्रयोग होता है ।कीचड में छपछ्पाना ’मुहावरा अभी बना नहीं ।राजनीति का यही हाल रहा तो वह भी बन जाएगा।
तो क्या यह सब मुहावरे एक -से हैं ? प्रथम दॄष्टया लगता तो ऐसा ही है। पर गहराई में जाने पर ऐसा है नहीं।
’कीचड़ फ़ेकना’-एक क्रिया है जिसमें व्यक्ति अपने सामने वाले पर ’फेंक ’ कर आत्म-सन्तोष पद को प्राप्त होता है। आत्म-मुग्ध हो जाता है।क्या लपेटा है स्साले को । इसी आत्ममुग्धता में उसे यह भी ख़याल नहीं रहता कि उसका स्वयं का भी हाथ गन्दा हुआ ।अपनी नाक कटी तो क्या हुआ ,दूसरे का शगुन तो बिगड़ा। तो फिर क्या ? यही कामना सामने वाला भी करता है । फिर दोनों आत्म-सुख में विभोर हो जाते है। कीचड़ फ़ेंकना ’एकल-दिशा’ की [uni directional] क्रिया है ।आप एक समय में कई लोगो पर कीचड़ नहीं फेंक सकते ।एक समय-बिन्दु पर एक आदमी पर ही फेंक सकते है ।
तो फिर "कीचड़ उछालना"??
तो फिर ,"कीचड़ में लात मारना" या "गोबर में लात मारना"? -[गोबर किसी का हो चलेगा?,निर्धारित नही है ?,गाय का हो .भैस का हो ,गोबर के लिए आवश्यक शर्त नहीं है ] हाथी के ’गोबर’ को गोबर नहीं लीद कहते हैं और उतना एक साथ उठा कर फ़ेकना या उछालना ज़रा मुश्किल काम होगा ”कीचड़ में लात मारना ’वाला मुहावरा कीचड़ फेकने से एक स्तर ऊपर वाला मुहावरा है । इसमें गुस्से का समावेश है ।गुस्से में आदमी यह भी भूल जाता है कि सामने कोई है भी कि नहीं । इसमें आत्म सुख से ज़्यादा -बदले की भावना प्रबल होती है।इसमें कीचड़, सामने वाले पर लगे न लगे गारन्टी नहीं मगर अपने आप पर लगने की पूरी गारन्टी है ।यह ’बहु-दिशा प्रक्षेपित ’ वाली ’क्रिया है साथ कई लोग पर प्रभावी हो सकती है । यह निर्भर करता है कि आप कितनी जोर से लात मारते हैं ?
"कीचड़ में लोटने का सुख तो वर्णनातीत है ।इसमें रत व्यक्ति अपने आप में सुख पाता है।-दुनिया से कोई मतलब नहीं ।वो अपनी ही दुनिया में मस्त रहता है ।यह परमानन्द की अवस्था होती है ।
इसमें क्या है मज़ा हमसे न पूछिए
अस्तु
एक व्यंग्य 73 : किस्सा सास-बहू का...
किस्सा सास-बहू का...
हाल ही में, मेरे एक मित्र महिपाल जी ने एक ’लोकोक्ति’-"का जिक्र किया था -- बहू को होत है ' मठा ' देवन ना देवन वारी ? देगी तो ,सासुई देगी "। इस -लोकोक्ति का सरल अर्थ यह कि सास के रहते हुए बहू कौन होती है अपने मन से किसी को मठा ( छाछ ) देने या न देनेवाली । अभी सास ज़िन्दा है ,देगी तो सास ही देगी ।
महिपाल जी ने लेख के अन्त में मेरा नाम "आनन्द.पाठक’ उजागर कर दिया । नतीज़ा यह हुआ कि मैं ’सास-बहू’ के सीधे निशाने पर आ गया। साहब तो पीछे हट गये ,हमे आगे कर दिया । मंच की सभी सास-बहू कहती फिर रहीं है- " महिपाल जी तो चलो भले आदमी थे ।इस मुआ पाठक को क्यों बुला लिया? अब यह हम लोगों की ’बखिया उधेड़ेगा’।
मरता क्या न करता ।अब लिख रहा हूँ-अयाज़ुबिल्लाह । इसीलिए ’बिच्छू-डंक नाशक मन्त्र’ पहले ही पढ़ लिया [ हमें नहीं ,ऊपर देखें -क्षमा-याचना-मन्त्र। हम तो शुरु से ही सास-बहू जैसे संवेदनशील मुद्दे पर लिखने से हमेशा बचते रहे ।क्यों लिखें ?आ बैल मुझे मार !मगर वो तो महिपाल जी ने बेमतलब मुझे घसीट लिया इस सास-बहू के चक्कर में ।इधर गिरे तो कुआँ--उधर गिरे तो खाई।
पहली बात तो यह कि सास-बहू के झगड़े में किसी ’बेचारे पति’ को नहीं पड़ना चाहिए। ’मनमोहन सिंह’ ही बने रहना उचित है। बोललो तो गेलो [ अगर बोले तो काम से गए समझो । अगर पत्नी की तरफ़ से बोले तो ’जोरू का गुलाम’ और माँ की तरफ़ से बोले तो ’-जाओ माँ की पल्लू में बैठो- मम्मी का बबुआ कहीं का-सुनना पड़ेगा ।दोनों तरफ़ से आप पर ही प्रहार। खरबूजा चाकू पर गिरे या चाकू खरबूजा पर । एक ही बात ।एक बार ऐसी ही ग़लती मैने कर दी थी । घर निकाला होते होते बचा। मुझे आज तक नहीं पता चला कि मैं किस की तरफ़ से बोल गया था ।
झगड़ा और रार में फ़र्क़ है। झगड़ा, समझ लें कि रार का उच्च स्तर है ।रार , झगड़े की पूर्वाभ्यास स्थिति है। रार कभी भी शुरु हो सकती है ,कहीं से भी शुरु हो सकती है।आँगन में बैठी सास सब्जी काटती रहेगी ,कुछ भुन-भुन करती रहेगी ।क्या ज़माना आ गया है । नन्हकू की पतोहू सर पर पल्लू नहीं रखती है। बहू इस बात का मर्म समझती है।-ज़माना किधर है और निशाना किधर है।आगरा में बैठ कर दिल्ली पे निशाना ?बहू रसोई घर से ही बोलती है आज कल सर पर पल्लू कौन रखता है ,माँ जी? बस सासू जी यही तो चाहती थी कि बहू कुछ बोले तो शुरु हों। तो शुरू हो गईं। अरे! हमारे ज़माने में तो-- -हमारे यहाँ तो - हमारे घर में तो.-- -.हमारे खानदान में तो ।-..तेरे यहाँ किसी ने कुछ नहीं सिखाया क्या ? मामला गर्म हो रहा है,। ऐसे में अगर कोई पति नाम का प्राणी वहाँ बैठ कर अखबार पढ़ रहा हो तो तुरन्त वहाँ से उसे नौ-दो-ग्यारह हो जाना चाहिए नहीं तो संभावित युद्ध में वो भी एक गवाह बनाया जा सकता है।
क्षणिक साहित्यिक शोध से यह पता लगा कि पहले सासू ने बहू पर कहावतें बनाई होंगी ,फिर प्रतिक्रिया स्वरूप बहुओं ने मिल कर सास पर कहावते बनाई होंगी। कोई उत्साही पाठक चाहे तो अपनी पी0एच0डी0 के लिए इस पर गहन शोध कर सकता है ।
सास की चेरी ,सब की जिठेरी- यानी सास का इतना कड़ा शासन [आतंक??] कि सास की सेविका भी देवरानियोंके लिए सास जैसी ही लगती है।
रामायण में तो ’सास’ का चरित्र-चित्रण तो बहुत अच्छा किया गया है । चाहे कौशल्या जी का हो .सुमित्रा जी का हो ।यह त्रेता युग की बात है ।मगर कैकेयी कल भी थी -कैकेयी आज भी है । अमर पात्र है । हर युग में ज़िन्दा है ।आज कल तो फ़िल्मों में माँ माने कामिनी कौशल --सुलोचना ,निरुपा राय ,सास माने ललिता पवार।
सास न ननदी ,आप आनन्दी। अब इस लोकोक्ति का अर्थ क्या बताना । अर्थ स्पष्ट है । उस बहू को आनन्द ही आनन्द है जहाँ न कोई सास ,न कोई ननद।न कोई देवरानी, न कोई जेठानी ,। न कोई टोका-टोकी , न कोई रोका-रोकी। दुनिया तो यही समझती है मगर ऐसा है नही। एक पिताश्री अपनी कन्या के लिए वर ढूँढ गए थे ,संयोग से एक घर मिल भी गया। लौट कर बड़े उत्साह से अपनी श्रीमती जी को बताया ।-घर बहुत अच्छा है , न सास न ननदी ,बेटी की आनन्दी। न जेठानी न देवरानी। राज करेगी मेरी बेटी...बहूरानी ।..
बहू के लिए शायद यह भी ज़रूरी है !!
ऐसे में पड़ोसन भी ऐसी लोकोक्तियाँ कहने में पीछे कब रहने वाली हैं । उन्हे अपने घर की नहीं ,पड़ोस के घर की ज़्यादा चिन्ता रहती है ।-किसी परोपकारी की तरह। अरे ! शर्मा के घर की तो बात ही छोड़ दो। उनके यहाँ तो -सास भी रानी ,बहू भी रानी ,कौन भरे कूएं का पानी। अब शहर में कुआँ तो रह नहीं गया ,लोकोक्ति रह गई । पड़ोसन भी चटखारे लेकर सुनाती है-सास तो कोठे कोठे ,बहू चबूतरे। क्या मतलब? मतलब कि सास तो लुक्का ,लुक्का ,बहू बुक्का ,बुक्का । क्या मतलब ? मतलब कि सास तो सब ढंक-ढाप के काम करती है और बहू-खुल्लम-खुल्ला करती है ।
इसी लिए ज्ञानियों ने कहा है -अन्धों के आगे रोना--.हकला के आगे हकलाना --,सास के आगे बहू की बड़ाई --कभी नहीं करनी चाहिए।
मगर हर बार ऐसा नहीं होता कि सास ,बहू का ख़याल नही रखती। कोई कोई सास तो बहू को बेटी जैसी मानती है । बहू जब कभी रोती है तो सास बड़े दुलार से उस के आंसू पोछती है । सास छोहहिलीं ,गोईंठा से आँस पोंछलीं -[यह भोजपुरी कहावत है] मतलब जब सास को दुलार [छोहहिलीं] उमड़ा तो बहू के आंसू "गोईठा" [गाँव में सर्वसुलभ ] से पोंछने लगती है।दुलार तो दुलार है । आज भी बहुत सी सास हैं जो कहती फिरती है मेरी बहू को तो मेरी आँख की पुतरी जानो --बहू नहीं है --बेटा है --बेटा--बुढ़ापे की लकड़ी--।
अब आप यह न पूछियेगा कि यह "गोईठा" क्या होता है? इस पर कभी विस्तार से बात करेंगे। अभी तो फ़िलहाल यही समझ ले कि को एक ’गोबर-उत्पाद" है और कंडा,चिपरी,उपला जैसी कोई चीज़ है ,राबड़ी देवी ज़्यादा विस्तार से बता सकती हैं । उन्हें इसका विशद अनुभव है।
अन्त में उन सभी सास-बहू ,जो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ,से क्षमा -प्रार्थी हूँ क्योंकि सास भी कभी बहू थी ।
अस्तु
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