रविवार, 31 मई 2009

व्यंग्य 05: सुदामा फिर आइहौ....

एक व्यंग्य: सुदामा फिर आइहौ....

सुदामा की पत्नी ने अपनी व्यथा कही ....
' हे प्राण नाथ ! या घर ते कबहूँ न बाहर गयो,यह पुरातन फ्रीज़ और श्वेत-श्याम टी०वी० अजहूँ ना बदली जा सकी.पड़ोस की गोपिकाएं कहती हैं 'हे सखी! आज-कल आप के बाल-सखा श्रीकृष्ण का राज दरबार दिल्ली में है.आप दिल्ली में द्वारिका की यात्रा क्यों नहीं करते? क्यों नहीं मिल आते एक बार ? कम से यह कष्ट तो कट जाते प्राणनाथ!
'हे प्राणेश्वरी !कितने वर्ष बीत गए. अब कौन पहचानेगा मुझे? बचपन की बात और थी जब हम साथ-साथ गौएँ चराया करते थे और वह चैन की वंशी बजाया करते थे .उनकी बात और है .वह भाग्य के प्रबल हैं.पूर्व में गोपिकाओं से घिरे रहते थे अब सेविकाओं से. हे स्वामिनी! मुझे आवश्यकता नहीं है 'दिल्ली' यात्रा की. हम संतुष्ट हैं अपने पुरातन फ्रिज व श्वेत-श्याम टी ०वी० से .क्या हुआ? फ्रिज में पानी ठंडा होता तो है.टीवी में 'चित्रहार' रंगोली आती तो है .चित्र हिलता है तो क्या?गाता तो है. अरे बावरी !औरों को गाडी बँगला टेंडर चाहिए ,हम निर्धन ब्राह्मण लिपिकों को लिफाफा बंद दान-दक्षिणा ही पर्याप्त है "-सुदामा ने कहा
कहते हैं सुन्दर स्त्रियों के अमोघ अस्त्र होते है उनके आंसू. एक बार निकले तो उसकी उषणता से पुरुष पिघल जाता है और यदा-कदा चुल्लू भर आंसू में डूब भी जाता है .सब अस्त्र चूक सकते है ,पर यह नहीं.पति नामक निरीह प्राणी फिर समर्पण कर देता है .यही इसका रहस्य है.अंततोगत्वा सुदामा जी को एक आदर्श पति की भांति,पत्नी की बात माननी पड़ी. इच्छा न होते हुए भी 'दिल्ली' में द्वारिका की यात्रा करनी पडी सुदामा की पत्नी एक सुयोग्य व विदुषी महिला थी /यात्रा -पथ के लिए उन्होंने पूडी-सब्जी , मिस्थान के अतिरिक्त एक पोटली और तैयार की विशेष रूप से श्री कृष्ण के द्वारपाल को भेंट देने के लिए चल पड़े सुदामा
००० ००००० ००००००
'ऐ ठहरो ! कौन हो तुम? किससे काम है?-द्वारपाल ने बन्दूक की बट टोंकते हुए कड़कती आवाज़ में कहा
''भइए मैं ,मैं हूँ सुदामा.,श्री कृष्ण ले बाल-सखा मित्र से मिलना है "
" मिलना है? हूँ !"- द्वारपाल ने एक व्यंगात्मक व परिहासजन्य कुटिल मुस्कान बिखेरते हुए कहा -' मिलाना है? अरे ! अपना रूप देखा है?
साहब के बाल-सखा है ! चला आया मिलने ! हूँ ,अप्वांतमेंट लिया है?"-द्वारपाल ने जिज्ञासा प्रगट की.
"ई अपैंत्मेंट का होत है भैया ? हम ठहरे बाल-सखा बाल-सखा सुदामा गोकुल में साथ-साथ गौएँ चराया करते थे "
" तो जाकर चराओ न , इधर काहे वास्ते माथा खाता है तुम्हारे जैसा दर्ज़नों सुदामा आता है इधर साहब का मिलने वास्ते . साहब तुम जैसे चरवाहों से मिलना शुरू कर देगा कल वह भी उधर गौएँ चराता नज़र आएगा. चलो हटो ! अपना काम करो शीश पगा न झगा तन पे "-द्वारपाल ने सुदामा को परे धकेलते हुए कहा
दीन दुखी सुदामा धकियाये जाने के बाद ,बाहर सीढियों पे बैठ गए.सुदामा जो ठहरे ब्राहमण आदमी ,स्वभावगत भीरू व निश्छल आज तक लाठी-पैना के अतिरिक्त कोई अस्त्र-शस्त्र तो देखा नहीं था ,बन्दूक मशीनगन देख वैसे ही पसीना छूटने लगा मन ही मन कभी स्वयं को ,कभी पत्नी को कोसने लगे.अच्छा-भला ,शान्ति पूर्वक जीवन यापन कर रहा था ,व्यर्थ में फंसा दिया इस माया जाल में .श्वेत-श्याम टी 0 वी० ?अरे नहीं बदलता तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ता ? और एक यह द्वारपाल का बच्चा कि खडा है द्वार पर पहाड़ की तरह .प्रवेश की अनुमति ही नहीं दे रहा है .इसीलिए कहते हैं की स्त्रियों की बात कदापि नहीं माननी चाहिए.साथ ही यदि वह स्त्री चतुर हो तो भूलवश भी नहीं .कहती थी यह पोटली दे दीजियेगा द्वारपाल को.हूँ ! यहाँ गाडी-मोटर वाले को तो कोई पूछता नहीं तो यह पोटली कौन सा तीर मार लेगी.? सुदामा जी ने कुछ साहस बटोर कर एक बार पुन: प्रयास किया .
" भइए ! अपैंतमेंट तो नहीं लाया है ,यह पोटली लाया हूँ तुम्हारे लिए,तुम्हारी भाभी ने दी है."
द्वारपाल ने ,कक्ष के कोने में जाकर पोटली का थोडा मुख खोला पूर्ण मुख खोलने से आचार-संहिता के उल्लंघन की संभावना थी कर्तव्यनिष्ठा पर आंच आ सकती थी पोटली के भीतर कागज़ के कुछ हरे-हरे व कड़े-कड़े दुकडे नज़र आये. द्वारपाल की आँखों में एक विशेष चमक व चहरे पर एक संतोष भाव उभर आया.
जब वह अपने आस-पास देख ,पूर्ण रूप से आश्वस्त हो गया की यह सुखद क्रिया किसी अन्य आगंतुक ने नहीं देखी तो झट पोटली बंद कर अपने पास रख ली.फिर मुड़ कर वाणी में मिठास घोलते हुए कहा -" तो भईए सुदामा ! दिल्ली नगरी कब पहुँचे? रास्ता में कोई कष्ट तो नहीं हुआ?
सुदामा जी स्तब्ध व अचम्भित हो गए. अभी अभी यह करेला नीम चढा था 'रसगुल्ला कैसे बन गया? बिनौला था रसीला कैसे हो गया ?
सुदामा जी ब्राह्मण ठहरे ,द्रवीभूत हो गए.'भईया' कितना प्यारा सम्बोधन दिया है.अपनापन उभर आया होगा . काश! धर्मपत्नी की बात मान पहले ही यह पोटली भेंट कर दी होती. परन्तु क्या था उस पोटली में की वाणी में मिठास आ गयी ? अवश्य ही नए गुड की डली रही होगी.पत्नी ने हमी से छुपाई थी यह बात . हो सकता है द्वारपाल महोदय पिघल गए होंगे . हमने भी तो भाभी का रिश्ता देकर सौंपी थी. पोटली आहा ! क्या द्वापर युग है .भेंट-दक्षिणा 'द्वार पर 'से ही शुरू.
सुदामा जी को मालूम नहीं ,कौन सी 'विलक्षण' वास्तु उस पोटली में हमें ज्ञात नहीं.यह रहस्य मात्र दो व्यक्ति जानते थे -एक द्वारपाल और दूसरे सुदामा की पत्नी.
उक्त पोटली के प्रभाव से सुदामा जी अन्दर पहुँच गए.
अन्दर ,श्रीकृष्ण जी ,मसनद के सहारे ,केहुँनी टिकाए लेते हुए हैं.अब मोर -मुकुट पीताम्बर की जगह खद्दर का कुरता,पायजामा ,जवाहर जैकेट , गांधी-टोपी है.अब छछिया भरी छाछ पे नहीं नाचते हैं ,अपितु कोटा-लाइसेंस के लिए अपने भक्तों को नचाते हैं .माखन की गगरी में नहीं ,वोट की नगरी में सेंध लगाते है.फल-फूल रखा है,अधिकारी ,व्यापारी,दरबारी घेरे खड़े हैं.कई सुदामा अपनी-अपनी झोली फैलाए खड़े है.किसी को तबादला करवाना है,किसी को तबादला रुकवाना है.किसी को परमिट चाहिए ,किसी को कोटा,बड़े लडके को मेडिकल में एड्मिसन दिलाना है.साहब एक संस्तुति -पत्र लिख दें तो कार्य सिद्ध हो जाएगा.भीतर चकाचौंध है.कुछ झोलाधारी,कुछ चश्माधारी .कुछ दाढ़ी बढाए ,कुछ मुंह लटकाए.कुछ स्वस्तिवाचन करते .कुछ स्तुतिगान करते.खड़े है
" सर ! आप तो जानते हैं कि कितने वर्ष से इस पार्टी कि निस्वार्थ सेवा कर रहा हूँ सर! एक गैस एजेन्सी मिल जाती तो ..... टेलीफोन कि घंटियाँ बज रही है टेलीफोन आ रहा है....टेलीफोन जा रहा है.......'हेलो हेलो ...मैं मंत्री निवास से बोल रहा हूँ ...हेलो हेलो आप सुन रहे हैं ना ....साहब की इच्छा है ......साहब चाहतें हैं .....आप सुन रहे हैं ना....साहब ने पूछा है....साहब कह रहें हैं.....साहब माँगते है......अच्छा ऐसा कर दीजिएगा ....नहीं नहीं ....लगता है...आप सुन नहीं रहे हैं.....टिकना मुश्किल हो जाएगा आप का ......आप दिल्ली आकर मिलिए ...
दरबार चल रहा है.चर्चा चल रही है देश की..विदेश की . 'गोकुल' की नहीं "अयोध्या' की .'मथुरा ' की नहीं 'राम-जन्म भूमि' की. 'राधा' की नहीं 'छमिया ' की.ग्वाल-बाल की नहीं 'मंडल 'की वैसे साहब का अपना 'बरसाना ' भी है
एक कोने में 'सुदामा जी' निरीह व निस्वार्थ भाव से औचक खड़े है. आज के कृष्ण सुदामा को नहीं पहचानते.अब दौड़ कर नहीं आते.बहुत सुदामा पैदा हो गए हैं.तब से अबतक .दिल्ली में सुदामा का पहचानना आवश्यक भी नहीं .पांच साल में मात्र एक बार तो पहचानना है ,जा कर पहचान लेंगे निर्वाचन क्षेत्र में पखार लेंगे पाँव एक बार
सुदामा जी के मुख पर संकोच का भाव है .यहाँ लोग कितने मिस्थान के पैकेट लाएं है और एक मैं कि कुछ नहीं लाया एक पोटली लाया भी था तो उस द्वारपाल के बच्चे ने रख लिया .विगत पचास-साठ साल से दिल्ली के किसी कोने में भारत का सुदामा आज भी खडा है ,अपने श्रीकृष्ण से मिलने के लिए .आज भी सुदामा दीन-हीन निरुपाय है आज भी " शीश पगा न झगा तनte पे 'है
साहब उठ गए.दरबार ख़त्म हो गया अन्य लोग भी उठ कर जाने लगे.साहब को किसी जन सभा में जाना है .भाषण देना है भारत कि दीन-हीन गरीबी पर.उनकी झोपडी पर जहाँ विकाश का रथ अभी तक नहीं पहुंचा है.उन गरीब भाइयों पर जहाँ अँधेरा है.भीड़ चल रही है .एक युवा तुर्क व्यक्ति आगे-आगे रास्ता बनाते चल रहा है ...'हटिये हटिये ...जरा बाएँ हो जाएँ...भाई साहब ...भीड़ मत लगाइए ..अभी साहब को जाना है..'- भीड़ छंट कर अगल-बगल हो जाती है कि अचानक साहब कि दृष्टि सुदामा पर पड़ती है
'अरे सुदामा! ? कब आए?'
'दर्शन करने आ गया सखे !'- वाणी में विह्वलता व ह्रदय में प्रेम भर कर सुदामा ने कहा
' ओ० के० ओ० के० फिर मिलना '
भीड़ सुदामा को पीछे धकेलते आगे बढ़ जाती है
०० ००० ००००
सुदामा का भ्रम टूट गया.सखापन वाष्प बन कर उड़ गया .मन भारी हो गया.अंतर्मन आर्तनाद से भर उठा.गला रुंध गया आँखों में प्रेम के आंसू छलछला गए.
धीरे -धीरे बोझिल कदमों से बाहर आ गए
' भैये भेंट हो गयी अपने बाल-सखा से ?--द्वारपाल ने जिज्ञासा प्रगट की
सुदामा बंगले की सीढियां उतरते सड़क पर आ गए
" फिर आईहौ लला ! पोटली लाना न भूलिअहौ"- द्वारपाल ने आवाज़ लगाईं
अस्तु!

----आनंद

बुधवार, 27 मई 2009

व्यंग्य 04 :लघु व्यथा -- लोमड़ी कथा ....

लोमडी ने ललचाई नज़रों से अंगूर देखा ।मुंह में पानी भर आया और लार टपक गई ।सोचने लग गई ....आहा! क्या रस भरे अंगूर होंगे...कितने मीठे होंगे...काश ! यह अंगूर अपने आप टपक जाता ...काश! यह अंगूर मैं तोड़ पाती... यही सोच उसने दो-चार जोरदार छलाँग भी लगाईं ।परन्तु अंगूर जरा ऊँचाई पर
लटके थे वह निराश मन दुखी हो वापस जा रही थी और दिल को समझाती जा रही थी ...क्या रखा हैं उस अंगूर में ...अंगूर तो अभी खट्टे हैं ...मैं नाहक ही परेशान हो रही हूँ ॥जब पक जायेंगे तो खाऊँगी... इसी उधेड़बुन मैं थी विप्र रूप धारण कर अचानक एक व्यक्ति प्रगट हुआ
" लोमडी बहन ! तुम उदास क्यों हो ?"
" देखो, तुम मुझे बहन -वहन मत कहो ,तुम आदमियों को अच्छी तरह जानती हूँ कुछ मदद कर सकते हो तो बोलो "
" तुम तो व्यर्थ  ही नाराज़ हो गई ,बोलो मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूँ ?-विप्र ने प्रस्ताव रखा
" देखो !वह अंगूर बहुत अच्छे लगते हैं. मगर मैं उन्हें पा न सकी... ,उसका भोग न कर सकी अगर तुम....." लोमडी बोली
" इस जन्म में तो नहीं ,अगले जन्म में कुछ मदद कर सकता हूँ .विप्र ने प्रस्ताव दिया
"चलो अगले जन्म ही सही"-लोमडी ने प्रस्ताव मान लिया
" जाओ ,अगले जन्म में तुम 'ठेकेदार' बनोगी ,फिर कोई अंगूर खट्टा नहीं रहेगा "-यह कह कर विप्र अंतर्ध्यान हो गया
०० ०००० ०००००
वह लोमडी, कलियुग में पुरुष योनी में जन्म ग्रहण कर 'ठेकेदार' पद को प्राप्त हुई . तदुपरांत उसने 'जंगल ' छोड़ 'दिल्ली' में आवास बना लिया.अब वह सुबह-सुबह "अंगूर ' का नाश्ता करता है ..अंगूर' का जूस पीता है रात्रि में 'अंगूर की बेटी ' का सेवन करता है .बड़े-बड़े लोगो के यहाँ अंगूर की पेटियों में अंगूर की शराब भिजवा देता है /साल में एक-दो बार जिंदा अंगूरी शबाब भी परोस देता है . बदले में अंगूर के बाग़ की नीलामी लेता है .अब उसे कोई अंगूर खट्टा नहीं लगता हर अंगूर मीठा रस भरा स्वादिष्ट लगता है चाहे वह चारा,तेल,अलकतरा के रूप में हो या सड़क ,पुल,बाँध की शकल में.या ग्रामीण रोज़गार मध्यान्ह भोजन योजना हो ?
०० ००००० ०००००००
और वह विप्र?
वह विप्र कलियुग में मनुष्य योनी में जन्म ले 'दलाल' पद को प्राप्त हुआ.और 'ठेकेदार' महोदय को ठेका दिलाने में मदद कर पूर्व जन्म का वचन निभा रहा है
अत: हे पाठक गण! जो व्यक्ति इस कथा का श्रद्धा पूर्वक श्रवण करता है वह निश्चय ही " व्यंग्य - लोक" का आनंद उठाता है
अथ इति श्री लोमडी-व्रत कथायाम द्वितीयोध्याय:
अस्तु

-आनन्द पाठक--

सोमवार, 25 मई 2009

व्यंग 03: लघु व्यथा -प्यासा कौआ....

प्यास से व्याकुल कौए ने घडा देखा .घडे में पानी था तो ज़रूर परन्तु पेंदे में , मुंह से बहुत नीचे था .प्यास बुझाने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था .प्यास से हाल-बेहाल था .अचानक उसके मन में एक विचार कौंधा .फिर क्या था ! पास पड़े कंकडों को एक-एक कर के घडे में डालना शुरू किया.उसका यह सत्प्रयास रंग लाने लगा और घडे का जलस्तरधीरे-धीरे ऊपर आने लगा.उसका यह परिश्रम सफल होने जा रहा था.वह सोच रहा था की अब वह अपनी प्यास बुझा लेगा ....वह अपनी प्यास...
दूर कहीं केहुनी पर टिका,गांधी टोपी लगाए एक आदमी यह घटनाक्रम बड़े ध्यान व मनोयोग से देख रहा था और कौए के श्रम पर मंद-मंद मुस्करा रहा था.कौए ने जैसे ही जल पीने के लिए अपनी चोंच दुबाई की उस आदमी ने एक पत्थर उठा कर चला दिया और कौए को भगा दिया .कौआ उड़ गया .तत्पश्चात वह
व्यक्ति बड़े आराम से पानी पीने लगा.लोग कहते हैं कि वह अपने क्षेत्र का बाहुबली था.
उस व्यक्ति की यह विलक्षण प्रतिभा व अद्भुत कार्यशैली देख कर आलाकमान महोदय अति प्रसन्न व प्रभावित हुए. उन्होंने उस व्यक्ति में अपने राजनैतिक उतराधिकारी के गुण देखते हुए आगामी चुनाव का टिकट दे दिया .कहने की आवश्यकता नहीं कि वह भारे मतों से विजयी भी हो गया .
और कौआ?
वह कौआ आज भी डाल पर बैठ कर कवी जी कि कविता गुनगुना रहा है :-
" एक आदमी /रोटी बेलता है
दूसरा सेंकता है /तीसरा रोटी से खेलता है
तीसरा वह कौन है ?
इस विषय पर आज संसद मौन है "

इति श्री काक व्रत कथायाम द्वितीयोध्याय
अस्तु.

---आनंद

शनिवार, 23 मई 2009

व्यंग्य 02 : सियारिन और हुआं हुआं.....

हुआं ! हुआं ! रात के अँधेरे में कहीं दूर से आवाज़ आई
'उफ़ ,स्साले रात में भी सोने नहीं देते'-नेता जी ने करवट बदली
शयन कक्ष के बाहर सुरती ठोंकते हुए रामदीन हवलदार ने नेता जी की अस्फुट अंतर्व्यथा सुन ली.साहब की आतंरिक पीडा से मर्माहत हो गया दिन भर साहब सभाओं में 'हुआं -हुआं ' सुनते हैं अब यहाँ
फिर क्या था ! रामदीन ने यह बात पी०ए० साहब को बताई ,पी०ए० साहब ने चीफ सेक्रेटरी को,चीफ सेक्रेटरी ने पुलिस कमिश्नर को,पुलिस कमिश्नर ने डिप्टी कमिश्नर को ,डिप्टी कमिश्नर ने ...... अंत में ओ०सी० ने रामदीन हवलदार को बताया कि कल रात कुछ सियारों के 'हुआं -हुआं से नेता जी चैन से सो नहीं सो सके उन्ही से बात उठी थी ,उन्ही तक बात जा पहुँची
मीटिंग हुई निर्णय लिया गया . प्रस्ताव पास हुआ . रात्रि-काल में सियार का 'हुआं -हुआं बोलना शुभ नहीं. शान्ति व्यवस्था भंग हो सकती है-वह भी तब जब कि क्षेत्र 'नो-हार्न-ज़ोन ' घोषित हो. यह सरासर 'अफेंस' हैं,गैर कानूनी है. इस पर प्रतिबन्ध लगना चाहिए . इस समस्या पर विचार होना चाहिए.
देश में आजतक कोई कानून नहीं बना इस पर .अविलम्ब बनाना चाहिए. फ़िलहाल 'अध्यादेश' से काम चल सकता है .ऐसे असमय शोर से 'ध्वनि-प्रदूषण' की संभावना बनती है. साहब की नीद टूट सकती है .देश हित में साहब का 'सोये' रहना ही उचित है. जग जाने पर हम लोगो के धंधे-पानी पर असर पड़ सकता है.'हुआं -हुआं करना विरोधियों की साजिस भी हो सकती है. कभी 'एक्स्प्लानेद' पर 'हुआं -हुआं करते हैं ,कभी 'वोट-क्लब' पर कभी 'राम लीला' मैदान में ,कभी 'गांधी मैदान' में .अगर समय रहते उचित कार्यवाई नहीं हुई तो हो सकता है कि जो सियार 'सेन्ट्रल-पार्क' में मिल कर 'हुआं -हुआं करते थे ,कल सेंट्रल में पहुँच कर 'हुआं -हुआं करना शुरू कर दें या कौन जाने साहब के बेड के नीचे ही बैठ कर 'हुआं -हुआं करना शुरू कर दें
उक्त प्रस्ताव उचित कार्यवाई हेतु सुरक्षा इंचार्ज को प्रेषित कर दिया गया. उचित कार्यवाई का सरकारी तंत्र में बहुत व्यापक अर्थ होता है. आप चाहें तो इस निर्देश पर कुछ भी कार्यवाही कर सकते हैं, गाली देने से गोली चलाने तक.हथकडी पहनाने से डंडा चलाने तक.बाद में आप उसे उचित ठहरा दें.आप चाहें तो कुछ भी नहीं कर सकते है . बता दें उचित कार्यवाही हेतु संभावनाओं का पता लगाने का प्रयास किया जा रहा है.यही शासन तंत्र है.
'उचित कार्यवाही' की अनुशंसा प्राप्त होते ही ,सुरक्षा गार्डों की एक मीटिंग तय की गई. मृदु पेय की,अल्पाहार की,मीटिंग के बाद मध्यान्ह भोज की व्यवस्था की गई .जिले के बाहर से आए अधिकारियों के लिए सोम-सुरा अलग से.मीटिंग नियत तिथि व नियति समय पर अध्यक्षीय नोट के साथ प्रारम्भ हुई
'ज्ञातव्य है कि कुछ सियारों के 'हुआं -हुआं ' से साहब की नींद व शान्ति व्यवस्था भंग हुई है और हमे सुरक्षा व्यवस्था 'रिव्यू ' करने को बाध्य होना पड़ा है. आज की मीटिंग इसी हेतु बुलाई गई है.हो सकता है इसमें विदेशी शक्तियों का हाथ हो या फिर हमारे पडोसी देशों की आतंकवादी गतिविधियों का .या हमारे अंदरुनी शत्रुओं के षडयन्त्र का कोई हिस्सा हो.अगर हमने उचित समय पर कार्यवाई नहीं की तो हो सकता है कि असली सियार के 'हुआं -हुआं 'के साथ-साथ हम नकली सियार भी 'हुआं -हुआं ' करना शुरू कर दें....'
'सर! हमें उसे पकड़ लेना चाहिए . आई मीन अरेस्ट सर! '--एक युवा प्रोबेशन अधिकारी ने सुझाया
" नो स्सर! हमारे पास कोई ऐसा जेल नहीं जहाँ सियार बंद किया जा सके '-एक बुजुर्ग अधिकारी ने प्रतिवाद जताया
" सियार को अदालत में पेश कर रिमांड पर लेना मुश्किल है स्सर! कानूनी अड़चन आ सकती है "-वृध्द अधिकारी का एक सहयोगी अधिकारी ने समर्थन किया
" स्सर ! अगर अरेस्ट करने के बाद सियार फरार हो जाए तो '...बुजुर्ग अधिकारी ने शंका प्रगट करते हुए कहा '....प्रेस वाले टोपी उछाल देंगे ,बड़ी फजीहत होगी '
" नो प्रॉब्लम स्सर ,हम उसकी ज़गह दूसरा सियार पकड़ कर बंद कर देंगे सब सियार एक जैसे होते है '--प्रोबेशन युवा अधिकारी ने अपने तर्क की पुष्टि की
'सारी सर ! आदमी को डंडे से सियार तो बनाया जा सकता है मगर सियार को आदमी नहीं '-- सहयोगी अधिकारी ने प्रतिवाद किया
अध्यक्ष महोदय कोई उचित निर्णय न होता हुआ देख चिंताग्रस्त हो गए क्या ज़बाब देंगे अपने बड़े साहब को ?मुख मलिन होते देख रामदीन हवलदार ने अपना बिहारी फार्मूला बताया -
" स्सर ! आप कहें तो धर दे एकाध लउर ससुरे पर.न रहेगा बांस ,न बाजेगी बंसुरी
" नो स्सर ,यह तो हिंसा का रास्ता है गांधी जी की आत्मा को कष्ट होगा -युवा अधिकारी ने विरोध प्रगट किया
"स्सर ! गांधी बाबा तो 'राजघाट' में सोए रहे हैं वह तो अब पत्थर के होए गए है . वह तो पिछलहूँ दंगा में किछु न बोले हैं -इ त एक ठो सियार बा.-रामदीन ने अपने तर्क की पुष्टि की
अंतत: उचित कार्यवाई मिल गई निर्णय लिया गया 'आपरेशन-सियार' किया जाय अगर आपेरशन में सियार मर गया तो कहा जाएगा इनकाउंटर में उसने पुलिस बल पर हमला किया था .शासकीय सेवा में व्यवधान डाला था. शान्ति व्यवस्था में तैनात राजकीय कर्मचारियों के कार्य निष्पादन में बाधा डाला था /एकाध पिस्तौल-चाकू बरामदी में दिखा देंगे
मगर कोशिश यही रहेगी कि सांप मरे ना लाठी टूटे आपरेशन सियार कार्यान्वित हुआ
प्रेस वालों ने आदतन मुद्दा उछल दिया.प्रस्ताव सियार पर हुआ था ,मारी सियारिन गई .सियारिन गर्भवती थी पेट में बच्चा था गिर गया.अनर्थ हो गया.जगह जगह धिक्कार सभाएँ होने लगी .निंदा प्रस्ताव आने लगे.महिला संगठनों ने जुलूस निकालने की धमकी दी .घायल सियारिन कराह रही है .रह रह कर तड़प रही है .सोच रही है -हुआं हुआं तो सियार ने किया था मारी मैं गई.वह तो भाग गया ,पकडी मैं गई .बेवफा मर्द की जाति ही ऐसी होती है.इससे पहले भी तो हम हुआं हुआं करते थे तो साहब की नीद नहीं टूटती थी.जनता चालीस साल से कितना हुआं हुआं कर रही है दिल्ली की नीद नहीं टूट रही है.संसद में,विधान-सभाओं में कितना हुआं हुआं होता है सरकार चैन की नींद सोती है .तो हमी क्यों ?--घायल सियारिन मन ही मन दुखी थी.
उससे भी ज्यादा दुखी जनता.वन संरक्षण वाले,क्रुएलिटी प्रिवेंसन वाले ,पर्यावरण वाले .नुक्कड़ सभाएँ होने लगी.प्रेस में बयान आने लगे .सियारिन प्रलुप्त जाति की है ,बचाना हमारा धर्म है 'आदमी की 'आदमीयत'प्रलुप्त हो रही है कोई बात नहीं.संरक्षण सियार का करना है आदमी का नहीं .
गर्भ में बच्चों का गिर जाना वस्तुत: भयावह है .उसकी भरपाई कौन करेगा ?कौन देगा उसको सहायता राशिः?किसको देंगे अनुदान? आदमी का बच्चा गिरता तो दस-बीस हज़ार देकर मामला सुलट जाता .सियारिन का कोई नज़दीकी रिश्तेदार भी तो सामने नहीं आ रहा है .एकाध नौकरी का आश्वासन ही दे देता .विरोध प्रकाश होने लगा.आंदोलनों की धमकियाँ दी जाने लगी.
विपक्षी पार्टियाँ खुश .बिल्ली के भाग्य से सिकहर टूटा.बैठे-बिठाए मुद्दा मिल गया.बहुत दिनों से एक सशक्त मुद्दे की तलाश थी.शहर बंद का आह्वान किया जा सकता है . कम से कम मंत्री जी का इस्तीफा तो माँगा ही जा सकता है.नैतिक आधार पर उन्हें इस्तीफा स्वयं सौंप कर वानप्रस्थ चले जाना चाहिए .जो व्यक्ति एक सियार की सुरक्षा प्रदान नहीं कर सकता ,वह देश की जनता को क्या सुरक्षा प्रदान करेगा ! नेता जी अयोग्य हैं ....मुर्दाबाद...मुर्दाबाद .
सत्ता पक्ष चिंतित.असमय सियारिन का मरना राजनीतिक संकट गहराने का अंदेशा .मादा वोट हाथ से सरक जाने का खतरा उस से भी बड़ा खतरा चुनाव आयोग वालों का... न जाने क्या अयोग्य ठहरा दें.नेता जी के राजनीतिक सलाहकारों ने सुझाव दिया---
'सर एक बयान दे दीजिए '
तैयारियां शुरू हो गई .सियारिन प्रकरण पर नेता जी अपनी स्थिति स्पष्ट करेंगे.पंडाल सजाने लगा.मंच बनने लगा ..पोस्टर छपने लगा,पर्चियां बटने लगी.बसों में भर-भर कर भीड़ जुटाई जाने लगी. लाउड-स्पीकर बजने लगा ,गाडियां दौड़ने लगी.सियार पर प्रदर्शिनी सेमीनार कराए जाने लगे .रेडियो टी ०वी० पर सियार संगीत उपलब्ध हो गया .'सियार-महात्म्य' बताए जाने लगे,'सियार-पुराण' सुनाए जाने लगा .चारो तरफ सियार ही सियार नज़र आने लगे.सडको पे,गलियों में,चौराहों पर........
नेता जी का 'सियार-प्रेम' देख जनता में उत्साह व ख़ुशी की लहर दौड़ गई .सब तरफ वाह! वाह! साधुवाद! साधुवाद! लाखों रुपये खर्च हो गए.
जनसभा हुई.नेता जी का भाषण आया--"मित्रो !आप जानते हैं सियार के बच्चों की ह्त्या ,विरोधियों की एक सस्ती व घिनौनी साजिस है.वह इससे राजनीतिक लाभ उठाना चाहते हैं यह उनका षड्यंत्र है हम उन्हें सफल नहीं होने देंगे.सियार के नाम पर वह न केवल देश को अपितु हमारी 'निद्रा' की अखंडता को तोड़ना चाहते हैं.हम उन्हें नाकाम कर देंगे.हमें आप का सहयोग चाहिए....हमें एक जुटता का प्रमाण देना है ....अगर आवश्यकता पड़ी तो देशहित में हमें आज़ादी की दूसरी (?)लडाई के लिए भी तैयार रहना होगा .....
" और अंत में ,आप को जान कर ख़ुशी होगी कि जिस सियारिन के बच्चे गिर गए थे ,वह पुन: गर्भवती हो गई है "

जनसभा में तालियाँ बजने लगी

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-आनंद

गुरुवार, 21 मई 2009

व्यंग्य 01 : कुत्ता बड़े साहब का .....

एक व्यंग्य : कुत्ता बड़े साहब का .....

वह बड़े साहब हैं.बड़ी -सी कोठी,बड़ी-सी गाडी, बड़ा-सा मकान ,बड़ा -सा गेट और गेट पर लटका बड़ा-सा पट्टा-'बी अवेयर आफ डाग" कुत्ते से सावधान सम्भवत: बड़ा होने का यही माप-दण्ड हो. चौकीदार चपरासी अनेक ,पर साहब एक मेंम साहिबा एक .परन्तु मेंम साहिबा को एक ही दर्द सालता था हिंदी के प्रति हिंदी के व्याकरण के प्रतिहिंदी में "कोठी" का बड़ा रूप "कोठा" क्यों नहीं होता ?हम मेंम साहिबा का दर्द महसूस करते हैं परन्तु उनकी मर्यादा का भी ख्याल रखते हैं.
परन्तु मोहल्ले के मनचले कब ख्याल रखते हैं.कल साहब के साला बाबू व जमाई बाबू गर्मियों की छुट्टियां व्यतीत करने आये थे बाहर-भीतर चहल-पहल थी लोग स्वागत-सत्कार में व्यस्त हो गए.मगर मनचले! मनचलों ने 'कुत्ते से सावधान' में 'कुत्ते' के आगे एक 'ओ' की मात्रा वृद्धि कर दी -'कुत्तों से सावधान' नहीं नहीं यह तो ज्यादती है 'साला' और 'जमाई' ही तो आये हैं और यह बहु-वचन.!
प्राय: जैसा होता हैं. एक बार पट्ट टंग गया तो टंग गया .कौन पढ़े रोज़ रोज़ !ऐसा ही चलता रहता अगर उस दिन कमिश्नर साहब ने टोका न होता
" अरे सक्सेना ! कितने कुत्ते पाल रखे हो ?"
" नो सर ,यस सर,यस सर ,हाँ सर!एक मैं और एक मेरा कुत्ता सारी सर मेरा मतलब है कि मैं और कुत्ता
बड़े साहब ने अपनी अति विनम्रता व दयनीयता प्रगट की.
नतीजा? भूल सुधार हुआ और एक चपरासी की छुट्टी .
मनचले तो मनचले .एक दिन रात के अँधेरे में 'कुत्ते से सावधान ' के नीचे एक पंक्ति और जोड़ दी ..." और मालिक से भी". लगता है इन निठ्ल्लुओं को अन्य कोई रचनात्मक कार्य नहीं .व्यर्थ में मिट्टी पलीद करते रहते हैं. खैर सायंकाल साहब की दृष्टि पडी ,भूल सुधार हुआ परन्तु बोर्ड नहीं हटा. संभवत: बोर्ड हटने से साहब श्रीहीन हो जाते ,कौडी के तीन हो जाते,जल बिनु मीन हो जाते .
साहब ने नीचे की पंक्ति क्यों मिटवाई? आज कल तो 'शेषन' को बुल डाग एल्सेशियन क्या क्या नहीं बोलते हैं !जितना बड़ा पद,उतना बड़ा विशेषण, उतनी बड़ी नस्ल . और एक हम कि हमें कोई सड़क का कुत्ता देशी कुत्ता ,खौराहा कुत्ता भी नहीं कहता .इस जनम में तो 'शेषन' बनने से रहा .लगता है यह दर्द लिए ही इस दुनिया से 'जय-हिंद' कर जाऊँगा .हाँ यदा-कदा श्रीमती जी झिड़कती रहती हैं -क्या कुत्ते कि तरह घूमते रहते हो मेरे आगे -पीछे ..." मगर यह एक गोपनीय उपाधि है
साहब लोगों के कुत्ते होते ही हैं विचित्र विकसित मेधा-शक्ति के. आदमी पहचानते हैं,'सूटकेस' पहचानते हैं 'ब्रीफ केस' पहचानते हैं .यदा-कदा साहब की कोठी पर आगंतुक सेठ साहूकारों की 'अंटी' व अंटी का वज़न भी जानते हैं.कहते हैं इनकी घ्राण-शक्ति अति तीव्र होती है .बड़े साहब से भी तेज़ .आप अन्दर दाखिल हुए नहीं कि वह तुंरत दौड़ कर आप के समीप आएगा ,आप को सूंघेगा,अंटी सूंघेगा सूटकेस सूंघेगा.माल ठीक हुआ तो तुंरत आप के श्री चरणों में लोट-पोट हो जाएगा .कूँ-कूँ करने लगेगा पूँछ हिलाने लगेगा कभी दौड़ कर साहब के पास जाएगा ,कभी आप के पास आएगा बरामदे में बैठा साहब संकेत समझ जाएगा.खग जाने खग की भाषा " "आइए आइए ! इतना भारी 'सूटकेस 'उठाने का कष्ट क्यों किया ,कह दिया होता तो ......"
और साहब बड़े सम्मान व प्रेम से आप को सीधे शयन कक्ष तक ले जाएंगे
उस दिन ,हम भी साहब की कोठी पर गए थे .व्यक्तिगत समस्या थी.स्थानांतरण रुकवाने हेतु प्रार्थना पत्र देना था.प्रार्थना-पत्र हाथ में था .सोचा प्रार्थना करेंगे ,साहब दयालु है ,संभवत: कृपा कर दें
सहमते-सहमते कोठी के अन्दर दाखिल हुआ 'बुलडाग' साहब दौड़ कर आए आगे-पीछे घूमे,कुछ अवलोकन किया ,कुछ सूँघा कि अचानक जोर-जोर से भौकना शुरू कर दिया .संभवत: संकेत मिल गया ,मैं विस्मित हो गया .
"बड़े बाबू! कितनी बार कहा हैं कि आफिस का काम आफिस में डिस्कस किया करो /सारी आई ऍम बिजी "- कह साहब अन्दर चले गए
" सर! सर! ...." मैं लगभग गूंगियाता ,धक्के खा कर फिंके जाने की स्थिति में आ गया
काश ,मेरे पास भी ब्रीफकेस होता
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मन आहात हो गया .कुत्ते ने क्या संकेत दिया ? वह बड़े साहब हैं तो क्या हुआ ? हम भी बड़े बाबू हैं .दो-चार लोग हमारे भी अधीनस्थ हैं.अत: मैंने भी एक कुत्ता पाल लिया बिलकुल शुध्द ,भारतीय नस्ल का स्वदेशी ,देश की माटी से जुड़ा,अपनी ज़मीन का
अपने हे परिवेश अपनी ही संस्कृति का कम से कम उचित संकेत तो देगा
उस दिन एक पार्टी (क्लाइंट?) आई थी.कुछ सरकारी कार्य करवाना था फाइल रुकी थी बढ़वाना था .मेरा 'शेरू 'दौड़ कर आया ,आगे -पीछे घूमा सम्यक निरीक्षण किया ,कुछ सूँघा .जब आश्वस्त हो गया तो 'क्लाइंट' के श्री चरणों में लोट-पोट हो कूँ -कूँ करने लगा मन प्रफ्फुलित हो गया 'शेरू' ने सही पहचाना मैं अविलम्ब उसे अपने बैठक कक्ष में ले गया स्वागत-भाव,आतिथ्य -सत्कार किया
चाय-पानी ,नाश्ता-नमकीन ,मिठाई प्रस्तुत किया उनका कार्य समझा ,आश्वासन दिया बदले में वह जाते-जाते एक लिफाफा थमा गए--"
पत्रं-पुष्पं हैं बच्चों के लिए "
'हे! हे! इसकी क्या ज़रुरत थी ? -मैंने विनम्रता पूर्वक .ससंकोच लिफाफा ग्रहण कर लिया
जल्दी-जल्दी विदा कर लिफाफा खोला देखा पांच-पांच के पांच नोट स्साला ,काइयां तीस रुपये की तो मिठाई -नमकीन खा गया और यह स्साला 'शेरू'? कुत्ते की औलाद /देशी नस्ल स्साला गंवई का गंवई रह गया पार्टी भी ठीक से नहीं पहचानता लात मार कर भगा दिया उसी दिन उसे

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अगले दिन साहब ने अपने कार्यालय -कक्ष में बुलाया--" बड़े बाबू ! सुना है तुम ने भी एक कुत्ता पाल रखा है "---बड़े साहब ने चश्में के ऊपर से देख एक कुटिल व व्यंगात्मक मुस्कान उड़ेलते हुए कहा
" नो सर! यस सर! हाँ सर! "- मैंने लगभग घिघियाते हुए कहा -" सर कल शाम ही उसे लात मार भगा दिया गंवई नस्ल का था स्साला क्लाइंट भी ठीक से नहीं पहचानता था "
" करने को क्लर्की और शौक अफसराना" --बड़े साहब ने कहा
खैर ज़नाब ! कुत्ता पालने का अधिकार तो बड़े साहब लोगो को है जब तक पद है ,कुर्सी है तब तक कुत्ते की आवश्यकता है ,जानवर की शकल में हो या आदमी ,चमचे(दलाल) की शकल में क्लाइंट पहचानना है इसीलिए आज भी बोर्ड टंगा है ---
"कुत्ते से सावधान '

--आनन्द पाठक-

बुधवार, 20 मई 2009

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कृपया प्रतीक्षा करें ......हम शीघ्र प्रस्तुत होंगे एक नए व्यंग के साथ ........आनंद