मंगलवार, 16 दिसंबर 2014

व्यंग्य 25 : छ्पाना एक हिन्दी पुस्तक का....

व्यंग्य 25 : छपाना एक हिंदी पुस्तक का---

कहते हैं प्रकाशन एक विधा है जैसे लेखन एक विधा है।मैं कहता हूँ प्रकाशन एक कर्म काण्ड है।पाण्डुलिपि का प्रकाशन कराते कराते अपना ही पिण्डदान बाक़ी रह जाता है।नवोदित व्यंग्यकार यह रहस्य समझते होंगे।लेखन आसान है-लेखनी ली ,अल्लम-गल्लम लिखा,दस बीस पन्ने रंग दिए पाण्डुलिपि तैयार। परन्तु प्रकाशन -ना बाबा ना।10-20 प्रकाशकों को टोपी पहनाते हैं तो कोई एक टोपी पहनता है बमुश्किल।[पाठकों को सूचनार्थ- सिर्फ़ मेरे प्रकाशक को छोड़ कर जो लेखक को ही टोपी पहनाता है] हिन्दी के व्यंग्य लेखक को 2-ही चिन्तायें सताती रहती हैं ।एक-बड़ी होती हुई बेटी ’रचना’ और दूसरी तैयार होती हुई पाण्डुलिपि ’रचना’।अगर दोनो प्रकाशित न हुई तो आजीवन कुँवारी रह जायेंगी और जग हँसाई ऊपर से।

वही हुआ ,जिसका भय था ।  रचना तैयार हो गई।अब एक सुयोग्य प्रकाशक ’वर’ की खोज करनी थी।सोचा समाचार पत्र के माध्यम से वैवाहिक कालम में एक विज्ञापन दे दूँ -"प्रकाशक चाहिए अपनी रचना के प्रकाशन के लिए ।पन्ने 200 ,वज़न आधा किलो,डिमाई साईज ,हार्ड बैक। इच्छुक प्रकाशक अपना ’बायोडाटा’ भर कर प्रकाशित सूची के साथ अपना फोटो भेंजे। ISBN पंजीकृत प्रकाशको को प्राथमिकता दी जायेगी।विचारधारा ’नो-बार’।वामपंथी .दक्षिणपंथी ,नरमपंथी ,गरमपंथी प्रकाशको पर विचार किया जा सकता है। कुंजी ,गेस पेपर ,श्योर शाट सक्सेस पेपर प्रम्पलेट पेपर ,मस्त जवानी गरम हसीना छापने वाले प्रकाशक कृपया क्षमा करेंगे।"--मगर जनाब अगर विज्ञापन से ही प्रकाशक मिल जाते तो हम इसे ’कर्मकाण्ड ’क्यों कहते।

ये प्रकाशक भी कुछ विशेष प्रकार के प्राणी होते हैं। पिछले व्यंग्य संग्रह "शरणम श्रीमती जी" -में इन प्राणियों पर कुछ प्रकाश डाला था। लिखा था कि किस प्रकार आंख के अन्धे-गांठ के पूरे ...एक प्रकाशक ने उक्त ्व्यंग्य संग्रह छापने का जोखिम उठाया था कि आज तक न उबर  सके।यह अलग बात है कि उक्त प्रकाशक महोदय ने न अपनी गांठ खोली न गठरी।यही क्या कम है कि बिना रायल्टी के छाप दिया।उनकी मान्यता है कि हिन्दी के सच्चे सेवक को न गाँठ देखनी चाहिए न गठरी। हिन्दी का लेखक तो साधु-सन्त होता है।गाँठ गठरी देखने का काम अंग्रेजी लेखकों का है। उनके इस गुरू-ज्ञान से मैं सहम गया ।कहीं उनकी दृष्टि मेरी गठरी पर तो नहीं है ?

। हालाँकि कुछ लेखक बड़े घाँघ होते हैं। दिन के उजाले में कहते हैं -"अरे मैं ! मेरी पुस्तक के लिए तो प्रकाशक मेरे दरवाजे पर लाईन लगाये खड़े रहते है कि पाण्डुलिपि तो बस आप मुझे ही दे दीजियेगा फिर देखिए कि कैसी आप की सेवा करता हूँ। अपना पैसा लगा कर पुस्तक छपवाना । राम राम राम कैसा कलियुग आ गया।" मगर रात के अधेरे में वही लेखक प्रकाशक के दरवाजे दरवाजे हाज़िरी देते हैं।खैर जनाब, मैं स्वयं ही एक सुयोग्य प्रकाशक की तलाश में निकल पड़ा-अपनी ’रचना’ के लिए।यह काम तो करना ही था ।खद्दर का कुर्ता सिलवाया ,पायजामा बनवाया।बाल बढ़ाये ,कुछ दाढ़ी बढ़ाई । कंधे पर झोला लटकाया ,आंखों पर मोटा ऐनक चढ़ाया ....।बम्बईया फ़िल्मवालोंने यही वेश भूषा ्निर्धारित की है बेचारे हिन्दी लेखक की॥इसी ’गेट अप" में फ़िल्म चुपके चुपके में हीरो पर्दे पर आताहै और शुद्ध हिन्दी बोलता है तो हास्य पैदा होता है-तालियाँ बजती हैं। यानी हिन्दी के मज़ाक से भी कुछ न कुछ कमाया जा सकता है।इस वेशभूषा में प्रकाशक के द्वार जायेंगे तो अभीष्ट प्रभाव पड़ेगा।अन्यथा क्या समझेगा कि कैसे कैसे लोग आ गये है आजकल हिन्दी व्यंग्य लेखन में।अन्तर मात्र इतना है कि एक नवोदित प्रकाशक किसी स्थापित लेखक के द्वार पर खड़ा रहता है और एक नवोदित लेखक प्रकाशक के द्वार पर।इसी लिए कहते हैं कि लेखक और प्रकाशक का चोली-दामन का साथ होता है । अब यह न पूछियेगा कि ’चोली’ कौन है?

पाण्डुलिपि बगल मे दबाये निकल पड़ा।चलते चलते एक प्रकाशक नुमा व्यक्ति दिखाई पड़े। सज्जन दुकान खोल कर अभी बैठे ही थे ,सोचा इन्ही से पूछते हैं।प्रश्नवाचक चिह्न की तरह मैं खड़ा हो गया । मेरे कुछ बोलने के पूर्व ही वह सज्जन बोल उठे--" आगे बढ़ो न बाबा ! अभी धन्धे का टैम है"
" मैं भिखारी नहीं ,लेखक हूं"- मैने अपना परिचय दिया
"हिन्दी में लिखते हो ? व्यंग्य लिखते हो-तो एक ही बात है"
मेरा भी स्वाभिमान जगा। लेखक का तिरस्कार सह सकता हूँ व्यंग्य का अपमान सह सकता हूँ मगर हिन्दी का नहीं\हिन्दी का सेवक जो हूं
"आप जैसे प्रकाशक ही हिन्दी का बंटाधार किए बैठे हैं-नवोदित लेखकों को प्रोत्साहन नहीं देते।-मैने कहा
जाने क्या सोच कर वह उठ खड़े हुए । मुझसे भी उच्च स्वर आवृति में कहा-" गुस्सा करने को नी\ जास्ती मचमच करने को नी। देखता नहीं प्रकाशन से ही ’माल’ खड़ा किया है । मालदार प्रकाशक हूँ -मालपानी। अब मैने ’चिल्लर’ देना बन्द कर दिया है । अरे ! आगे बढ़ो नी बाबा"
"आप को कला की पहचान नहीं ,कलाकार की पहचान नहीं।मात्र ’माल’ की पहचान है । नाम है -मालपानी ,आंखो में पानी नहीं।अरे हम लेखक लिखते हैं आत्मा से..."-मैने भी गर्जना की
"आत्माराम एन्ड सन्स" अगली गली में रहते हैं--वहीं जाओ न बाबा !वहीं आईना दिखाओ ...म्हारो माथा खाओ नी..."-अरे रामू ! ज़रा इन भाई साहब को ....!’
इस से पहले कि रामू मुझे बाहर का रास्ता दिखाता मैने स्वयं ही वहाँ से चला जाना उचित समझा। हिन्दी का लेखक जो हूँ।

मैं आगे बढ़ा।देखा कि एक किताब की दुकान में एक हृष्ट पुष्ट सज्जन अपने 4-5 हट्टे कट्टे बलिष्ठ साथियों से घिरे हुए हैं।साहित्य पर चर्चा चल रही है ।हास-परिहास हो रहा है। हिन्दी लेखकों की टाँग खिंचाई हो रही है। हिन्दी साहित्य पर चिन्तन-मनन हो रहा है।इनका अपना दरबार है इनके अपने लेखक हैं इनका अपना गुट है इनके अपने आलोचक हैं इनके अपने समीक्षक हैं इनके अपने लठैत है ..वक़्त ज़रूरत हिन्दी सेवकों की सेवा भी कर सकते है जो इनके गुट में नहीं हैं  इनके अपने प्रकाशक हैं --कहने का मतलब यह कि इनका अपना खेमा है और अपनी खेमाबन्दी । हिन्दी वाले इसे ’विचार धारा के स्कूल’ कहते है ,हमें तो गिरोह लगता है बोतल तो कोका कोला-पेप्सी की लग रही है भीतर क्या भरा है कहा नहीं जा सकता। शरीर संरचना से तो समर्थ प्रकाशक लगता है। मैने अपनी पाण्डुलिपि दिखाई ,परिचय दिया...संग्रह की संक्षिप्त रूप-रेखा बताई ....
अचानक...
हा! हा!  हा! अठ्ठहास करते हुए उक्त सज्जन ने कहा-"अकेले आये हो? अयं। तेरा जोड़ीदार किधर है रे ?"
इस अचानक अठ्ठहास से मैं घबरा गया । अभी तो यह आदमी कुछ प्रकाशकनुमा दिख रहा था अब इसमें ’गब्बर सिंह’ कहां से आ गया?मैं समझ गया मेरा जोड़ीदार ’मिसरा जी’ की बात कर रहा है ।मेरे पिछले व्यंग्य संग्रह में मिश्रा जी ने प्रकाशन-विपणन-समीक्षा करवाने में नि:शुल्क व नि:स्वार्थ मदद की थी ।[पाठकगण कृपया ’शरणम श्रीमती जी -व्यंग्य संग्रह के व्यंग्य चलते चलते का सन्दर्भ लें]
" बड़ी जान है रे तेरी कलम में ..किस पेन से लिखता है अयं?"- खैनी ठोकते हुए उक्त सज्जन ने कहा -" पिछली बार प्रकाशकों पर व्यंग्य तुमने ही लिखा था? क्या सोच कर लिखा था कि सरदार [प्रकाशको का] बड़ा खुश होगा ---सरदार तुम्हें रायल्टी देगा...आ थू ! अरे वो कालिया ! कितना किताब छापते हैं रे एक साल में हम...?
"सरदार 100-200"
"बरोबर ! और यह 100-200 किताब हम यूँ ही नही छापते । सरकारी ठेका लेते है । जब ’गब्बर प्रकाशन" किताब छापता है तो दूर दूर तक प्रकाशक माथा पकड़ लेता है ....गब्बर का नाम सुन कर...आ थू"
मै थर थर काँपने लगा। कहाँ आ कर फँस गये पुस्तक छपाने के चक्कर में ।जान बची तो बहुत प्रकाशक मिलेंगे।जान नहीं तो लेखन क्या -प्रकाशन क्या?
"सरदार ! मैं चलता हूँ"-मैने पान्डुलिपि उठा ली।
"हा! हा! हा! -जो डर गया सो मर गया।हम तुम्हारा इन्साफ़ करेगा।तुम को साफ करेगा। बरोबर करेगा। अरे ! ओ साम्भा ! ज़रा उठा तो कलम और लगा तो निशाना...."- उसने आवाज़ दी...और पिच्च से मुँह की खैनी थूक दी [मेरे ऊपर नहीं] लगता है सबको एक ही छत के नीचे  बैठा रखा है ---लेखक---समीक्षक---आलोचक--प्रकाशक--पुस्तक विक्रेता...। सरकारी शब्दावली में इसे "एकल-खिड़की"-सुविधा कहते हैं

वहां से जो भागा तो सीधे घर आकर ही दम लिया ...जान बची लाखों पाये...लौट के बुद्धू घर को आये ..लड़ने का माद्दा छोड़ कर आये ...

लगता है पुस्तक प्रकाशन मेरे बस का नहीं।जिन प्रकाशकों को पत्र लिखा ,सबने विनम्रता से जवाब दिया -’...आप की रचना सर्वश्रेष्ठ है ,आशा है कि आप की ये रचना हिन्दी साहित्य को समृद्ध करेगी...आप से हिन्दी जगत को बहुत संभावनायें हैं... हमें खेद है कि आप की इस पुस्तक का प्रकाशन हम अभी नहीं कर सकते कारण कि हम अभी अन्य श्रेष्ठ रचनायें यथा-डब्बे में ख़ून...ख़ूनी खंज़र..नंगी लाश..जैसी कालजयी रचनायें और कृतियों के प्रकाशन में व्यस्त हैं आप अन्यथा न लेंगे-सखेद सधन्यवाद।
मैने पाण्डुलिपि तो भेजी नहीं थी ।मात्र शीर्षक देख कर ही रचना की श्रेष्ठता समझ लेने वाले प्रकाशक धन्यवाद के पात्र ही नहीं ,महापात्र होते हैं।कुछ-कुछ पाठक तो पुस्तक कवर पर प्रकाशित मनभावन लुभावन चित्र देख कर ही रचना की उष्णता का आकलन कर लेते हैं। ऐसे पाठक और प्रकाशक दोनो ही दुर्लभ प्राणी होते हैं
आशा बलवती राजन !सोचा एक बार पुन: प्रयास करना चाहिए।अगर भगवान ने मुझे बनाया है तो कहीं न कहीं मेरे प्रकाशक को भी बनाया होगा।आवश्यकता है तो मात्र ढूँढने की।पुन: अपनी पाण्डुलिपि लेकर निकल पड़ा।अपना व्यंग्य संग्रह लेकर एक प्रकाशक के पास गया। सर्वप्रथम तो उन्होने मुझे ऊपर से लेकर नीचे तक आद्योपान्त इस तरह देखा जैसे मैं कोई लेखक नहीं तिहाड़ जेल से छूट कर आया हूँ। फिर पूछा-"नाम?"
"अच्छा तो आप ही हैं जिसने "चलते चलते .." व्यंग्य में हम प्रकाशकों की खिल्ली उड़ाई थी? माफ़ करना बाबा ,हम चालू-चलन्त.लेखकों की कृतियाँ नहीं छापते।
 । उन्होने "चलन्त" शब्द का प्रयोग ऐसे किया जैसे मैं किसी नगर पालिका का "चलन्त" कूड़ादान लिए फिर रहा हूँ । उनके चलन्त शब्द में मुझे "घुमन्त" प्रकाशन का ’अन्त’ शब्द का बोध हुआ। हे भगवान ! इस प्रकाशक को थोड़ी से सदबुद्धि भी दे ।मैं बाहर निकल आया
किसी साहब ने बज़ा फ़र्माया है
मैं इसे शोहरत कहूँ या अपनी रुस्वाई कहूँ
मुझ से पहले उस गली में मेरे अफ़साने गए

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मैं अपनी औक़ात समझ गया ।नवोदित लेखकों को ये सम्पादक एवं प्रकाशक औकात ही बताते हैं। परन्तु यह धरा अभी प्रकाशकों से विहीन नहीं हुई है ।सभी तो ’गब्बर’ खानदान से ताल्लुक नहीं रखते होंगे ? एक प्रकाशक महोदय मिल ही गए।दुकान खोल कर बैठे ही थे।स्पष्ट नहीं हो पा रहा था कि वह पुस्तक विक्रेता हैं कि प्रकाशक।शकल से दोनो ही का भाव का बोध हो रहा था। मेरी ही तरह खद्दर का कुर्ता व पायजाम पहने ,ऊपर से जवाहर जैकेट के ऊपर कंधे पर एक उत्तरीय। शकल से किसी नगरपालिका स्कूल के मास्टर ज़्यादा और प्रकाशक कम लग रहे थे॥ जब से सुना है कि कुछ घाघ प्रकाशक लेखकों की टोपियाँ उछाल देते हैं ,तब से मैने टोपी पहनना छोड़ दिया। न रहेगी टोपी- न उछलेगी पगड़ी।
मैने अपना परिचय दिया ।अपना दर्द समझाया। अपनी विवशता बताई। जब मैने ’गब्बर सिंह’ वाली घटना बताई तो द्रवित हो गए।आँखों में आँसू भर लिए। हृदय में वात्सल्य भाव उमड़
आया। बोले-" होता है बेटा ! होता है ऐसा।कुछ कुछ प्रकाशक होते हैं ऐसे । वे सरकारी प्रकाशक होते हैं ठेकेदार प्रकाशक होते हैं। उनको हिन्दी के उत्थान पतन विकास से कुछ नहीं लेना देना। वो हमारे जैसे नहीं होते कि हिन्दी और हिन्दी के उत्थान के लिए सारा जीवन होम कर दिया ,अर्पित कर दिया।अपनी जमा-पूँजी प्रेस में लगा दी और जवानी भी।हमें हिन्दी की सेवा करनी थी एक सच्चे सेवक की तरह...। चिन्ता नहीं करो बेटा ! देर से आये हो मगर दुरुस्त आये सही जगह आए ।समझो कि तुम्हारी तलाश खत्म ...तुम्हारी चिन्ता अब मेरी चिन्ता हो गई...नो लुक बियान्ड फ़र्दर।एक काम करो...।अपनी पाणडुलिपि छोड़ जाओ..पढ़ लूंगा...।एक सप्ताह बाद आ जाना ...बता दूँगा।

मैं उनके इस वात्सल्य प्रेम से अभिभूत हो गया ।मन श्रद्धा से भाव विभोर हो उठा\ सोचने लगा -कितना भला प्रकाशक है \विचारों से यह ’भारतेन्दु’ काल का लग रहा है । ऐसे ही प्रकाशकों के दम से तो यह हिन्दी अभी टिकी हुई है वरना ’कार्पोरेट प्रकाशक तो कब का.....

मैं  धन्यवाद कह  बाहर निकल आया।
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एक सप्ताह बाद
"आओ बेटा ! आओ ! बैठो।मैने पाण्डुलिपि पढ़ी।तुम अपने हो।तुम्हारा कष्ट देखा नहीं जा रहा है। बुरा न मानना।  व्यंग्य श्यंग लिखना छोड़ दो।इस में कुछ नहीं रखा है।अमूमन व्यंग्य-श्य़ंग्य तो कोई पढ़ता नहीं ।व्यंग्य से ज़माने को नहीं बदल पाओगे।आईना दिखाने से ज़माना नहीं बदलता ,सिर्फ़ हँसता है। पिछली बार छपवाया था तो क्या हुआ? बिकी? एक भी बिकी? गोदामों में सड़ रही है।धूप दिखाने का खर्चा सो अलग।अरे भइया ,मेरी मानो तो "लालू-चालीसा’ लिखो.."मोदी महात्म" लिखो.."राहुल सप्तसती"- लिखो...कुंजी लिखो..गेस पेपर लिखो श्योर शाट पेपर लिखो..परीक्षा पास करने के 101 तरीके लिखो...अच्छे अंक कैसे प्राप्त करे लिखो...अभिनन्दन पत्र लिखो..स्वागत गान लिखो..बड़ी माँग है इनकी आजकल । लिखने वाला मालामाल ्छापने वाला मालपानी..गंगा बह रही है हाथ धो लो..वरना व्यंग्य लिखते रहोगे तो लँगोटी भी उतर जायेगी..। भई .अगर तुम हमारे प्रकाशन के लिए लिखो तो कुछ हम भी माल-टाल बना लें। 50%-50% / वरना तो यह व्यंग्य-श्य़ंग्य तो निठ्ठलों के चोचले होते है --न लीपने के काम का..न पाथने के काम का।बेटा ! तू जानता नहीं ,’--लिखने से ज़्यादा छाप कर बेंचने में पापड़ बेलने पड़ते हैं..सरकारी कार्यालयों के ’सुविधा-शुल्क’ लाइब्रेरी में ठेलने का खर्च अलग ,कागज-स्याही का भी खर्चा नहीं निकलता..फिर पुस्तक मेले में खोमचे लगा लगा कर बेचना पड़ता है।
-" तो क्या व्यंग्य पेड़ पर उगते हैं? आप क्या जानो कि व्यंग्य लिखने में कितना ’रिस्क’ होता है कितने पापड़ बेलने पड़ते है कि बेचारा लेखक अन्त मे अचार-पापड़ बेचने लग जाता है"-मैने अपना दिव्य-ज्ञान बघारा ।
स्पष्ट था मैने अपनी पाण्डुलिपि उठाई और बाहर आ गया।

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मन विद्रोह कर उठा।जो भी हो-अब तो यह संग्रह छपवा कर ही रहना है ।यही संघर्ष है ,यही साधना है यही तपस्या है। यही हिन्दी सेवा है।
एक प्रकाशक के कार्यालय गया ।बड़ा नाम सुना था।ऊँची दुकान थी पकवान देखा नहीं था। सोचा पकवान भी देख लूं।अभी उनके कक्ष में घुसा ही था कि अपने चश्मे के ऊपर से घूरते हुए देखा और कहा-"अरे बाबा ! तू फिर इधर आ गया। पिछ्ली बार बोला न तेरे कू .बोला न, इधर कू जास्ती आने का नी। तू ही  ’चलते चलते ....’ लिखा था न ? तो फिर रुक क्यूँ गया? आगे चलो न बाबा। हम तुम को बोला न ,हम व्यंग्य-श्यंग्य नही ्छापता । तू जास्ती इधर को आयेगा तो पुलिस वाला भी इधर कू आयेगा...माफ़ कर न मेरे बाप....।
बाद मेम ज्ञात हुआ कि उक्त प्रकाशक महोदय सचित्र रंगीन कहानियाँ , रंगीली जवानी..रंगीन रातें वयस्कों के लिए छापते हैं ।मुद्रक प्रकाशक का पता नहीं छापते ,गुप्त रखते हैं। हिन्दी की गुप्त सेवा करते हैं। इनकी छपी किताबें शहर की हर गली-खोली -नुक्कड़ पर गुप्त रूप से मिलती हैं जिसे शहर के लौण्डे छुप छुपा कर पढ़ते हैं । बड़े बड़े साहब लोग रात को बेडरूम में अकेले पढ़ते हैं। पैसे वाले प्रकाशक है बस पुलिस से डरते हैं।
 मन भिन्ना गया।
थक हार कर एक मा‘ल में घुस गया।किसी प्रकाशक का था। प्रवेश हाल में एक सुन्दर से रिशेप्स्निस्ट ।चेहरे पर सदाबहारी प्लास्टिक मुस्कान.एक ही जुमला-व्हाट आइ कैन हेल्प यू ,सर !? भीतर एक बड़ा सा चमकता हुआ आफ़िस ।मार्ब॒ल की फ़्लोर। वातानुकूलित कक्ष ।कक्ष में एक बड़ा टेबुल ,बगल में एक बड़ा सोफ़ा।सोफ़ा के बगल में एक साइड टेबुल ..और उस पर कुछ पत्र-पत्रिकाये। टेबुल के उस तरफ़ एक घूर्णनदार कुर्सी। कुर्सी पर बैठा एक नवयुवक । सूट पहने टाई लगाये।आँखो पर एक बड़ा सा काला गागल्स चढ़ाए।किसी बड़ी कम्पनी का मैनेज़र लग रहा था । मैं संकोच में पड़ गया ,लगता है ग़लत जगह आ गया हूँ\यह सेन्ट्रल माल या स्पेन्सरमार्ट तो नही? यहाँ किताबें कहाँ छपती होंगी? बाहर निकलने वाला ही था कि मैनेज़र ने पूछ लिया
-" यस ! प्लीज़ ! मै आप की क्या सेवा कर सकता हूँ?"
-’ नहीं नहीं कुछ नहीं बस यूँ ही...."
-"प्लीज़ ! आप बैठें’-मैंउसके आग्रह पर सोफ़े पर बैठ गया । इसी बीच एक सुन्दर से कन्या बड़े ही करीने से एक ट्रे में कुछ पेय पदार्थ ले आई। एक हल्की सी मुस्कान बिखेरते हुए बोली-"प्लीज़"।
 बिहारी होते तो एक दोहा लिख देते मैं था तो मैं संकोच में पड़ गया।अब उठ कर भाग भी नहीं सकता। पेय पीने के बाद कुछ तनाव कम हुआ।
-" जी बतायें ! मैं आप की क्या सेवा कर सकता हूँ "- उक्त व्यक्ति ने पुन: पूछा
मैने अपनी सारी बात बताई । अपनी व्यथा समझाई ।कथा सुनाई। मैनेज़र ने कहा -" नो प्रोब्लेम" काम हो जायेगा ।आप की किताब छप जायेगी। बस आप पैकेज़ सलेक्ट कर लें । मिनी ! सर को वह बुकलेट दे दो"
मैने ’पैकेज़’ को ’पैकेट’ समझा । हिन्दी का लेखक हूँ सम्भवत: ’रायल्टी’ का पैकेट होगा !मिनी बिटिया मुझे ’बुकलेट’ थमा गई
पढ़ा तो ’लेट’[स्वर्गीय] होते होते बचा।वह ्पैकेज़-बुकलेट’ ्क्या था ..समझिए कि ’पाकेट-कर" [पाकेट मार नहीं] था। सुधी पाठकों की ज्ञान वर्धनार्थ संक्षेप में प्रकाश डाल रहा हूँ। मैं तो नसानी तुम ना नसैहों।
सिल्वर पैक योजना : यानी मात्र पुस्तक छापने के 20,000/- रूपये।इस पैकेज़ में मात्र 500 प्रतियाँ ही छापी जायेंगी। 11-लेखकीय प्रतियाँ मुफ़्त।पुस्तक यदि ’हार्ड बाऊण्ड’ में छपवानी है तो 2000 रुपये अतिरिक्त प्रभार लिया जायेगा । सभी टैक्स सहित। दो पुस्तके एक साथ छपवाने में तीसरी पुस्तक में 50% की छूट ।यह पैकेज़ उक्त पैकेज का विस्तार स्वरूप है ।फ़िक्स्ड रेट। रेट निगोशियेबुल नहीं। भुगतान चेक के माध्यम से स्वीकार्य।पैन कार्ड की कापी लगाना अनिवार्य।

सिल्वर पैक + योजना :-वस्तुत यह योजना सिल्वर पैक योजना का विस्तार रूप है। इसमे मनमाफ़िक समीक्षा कराने का अतिरिक्त शुल्क।स्थानीय  दो पत्रों में समीक्षा लिखवाने का शुल्क अलग। राज्यस्तरीय अखबारों में समीक्षा प्रकाशित करवाने का शुल्क अलग।टटपुँजिए समीक्षकों से समीक्षा करवाने पर शुल्क में छूट देने पर विचार किया जा सकता है।कृपया मोल तोल कर इस संस्था को शर्मिन्दा न करें।

विशेष योजना : पुस्तक को विवाद में लाने हेतु अतिरिक्त चार्ज़ लगेगा। प्रतियाँ जलवाने हेतु पेट्रोल किरासन का खर्च 500/- अतिरिक्त। पुस्तक की प्रतियां आप के मद में जायेंगी।भीड़ जुटाने का खर्च अलग प्रति व्यक्ति 100/- के हिसाब से चार्ज़ किया जायेगा ।इस में नाश्ता-पानी का खर्च शामिल नहीं है । यह योजना नवोदित लेखकों के लिए विशेष लाभकारी व शुभकारी है

गोल्डेन पैक योजना :-इस योजना में लेखक यदि सम्मान भी करवाना चाहता है तो उसका भी खर्च शामिल है।ढाबे में सम्मान कराने का दर अलग।यह पैकेज़ ग्रामीण और कस्बई लेखकों के लिए उचित है।मान सम्मान में धन नहीं देखते।सम्मान है तो धन है नहीं तो टन-टना-टन है।प्रतिष्ठित लेखकों के लिए अन्य योजना। पाँच सितारा होटल में 5-लाख रुपये। लेखक के 11-अतिथि मुफ़्त।

डायमंड पैक योजना :- लेखकगण कृपया इसे डायमंड बुक्स वालों की योजना न समझें ।यह हमारे प्रकाशन की विशेष योजना है जो विशेष रुप से अनिवासी भारतीय [N R I ]  लेखकों के लिए बनाई गई है। कृपया देसी और विशेषत: कस्बई लेखक इस योजना के पढ़ने में अपना समय व्यर्थ न करें।इस योजना में प्रकाशन का भुगतान नगद और "डालर" में लिया जायेगा।अनिवासी भारतीय लेखक प्रकाशनोपरान्त कब भारत छोड़ वापस लौट जाय अत: सुरक्षा हेतु ’अग्रिम-भुगतान’ ही लिया जायेगा
इस योजना के अन्तर्गत पुस्तक का प्रकाशन ,पंच सितारा होटल में किसी विशिष्ट व्यक्ति के कर कमलों से विमोचन एवं लेखक के 11-अतिथियों की सेवा मुफ़्त।इस योजना में अतिथियों के आने जाने और ठहरने का खर्च शामिल नहीं है -लेखक को स्वयं वहन करना पड़ेगा। इस योजना का मूल्य मात्र 10,000 डालर......

प्रकाशन खर्च पढ़ कर मैं मूर्छित  हो गया ।वह तो भला हो उस सुन्दर कन्या का जिसने मेरे मुंह पर पानी के छींटे डाल कर किसी तरह मुझे चेतनावस्था में ले आई ।फिर पूछा-
"क्या हुआ अंकल !"
"कुछ नहीं बेटी! रात नींद ठीक से नहीं आई थी"
’यस सर ! मैं आप की क्या सेवा कर सकते हैं व्हाट आई कैन हेल्प यू सर! आप चाहें तो 10,000 डालर का भुगतान ’आप अपने क्रेडिट कार्ड से भी कर सकते हैं।" -मैनेज़रनुमा प्रकाशक ने समझाया
"आप के पास ’क्रेडिट कार्ड’ है अंकल ?" -कन्या ने पूछा-" किस बैंक का है?"
"नहीं बेटा ! मेरे ऊपर ’क्रेडिट’[उधार] तो है, कार्ड नहीं है"-मैने विशुद्ध हिन्दी लेखक की तरह अपनी दयनीयता प्रगट की
"आप ने ’रायल्टी’ के बारे में कुछ नहीं लिखा है= मैने मैनेज़र से जिज्ञासावश पूछ लिया
"सर ! हम रायल्टी नहीं देते । बस किताब छाप कर लेखकों का उत्साहवर्धन करते रहते हैं। हिन्दी की सेवा करते रहते हैं"
"ठीक ही कहा । पिछली बार भी एक प्रकाशक ने मेरी पुस्तक छाप तो दी मगर रायल्टी नहीं दी"
"देता कहाँ से? बिकती तो देता न......"--पीछे से एक आवाज़ आई। एक बूढ़ा आदमी ऐनक चढ़ाए -मुनीम- रज़िस्टर में कुछ हिसाब किताब कर रहा था -" तुम्हारे जैसे लेखकों की किताब छाप छाप कर इस हालत में पहुँचा हूँ कि मुनीमगीरी कर रहा हूं...."

मैने उस व्यक्ति को पहचानने की एक समर्थ कोशिश की--" अरे! श्रीमान आप? आप यहां?...
वह मेरे पहले प्रकाशक थे।
स्पष्ट है ,मैने अपनी पाण्डुलिपि उठा ली और वापस चला आया ।
अस्तु।

-आनन्द.पाठक-

गुरुवार, 24 जुलाई 2014

व्यंग्य 24 : आलू-प्याज-टमाटर

आलू-प्याज-टमाटर  [लघु व्यंग्य-कथा ]

जब से प्याज़ ने एक बार दिल्ली की सरकार हिला दी तब से इन सब्ज़ियों को अपनी ताक़त का अन्दाज़ा लग गया और सरकार को अपनी औक़ात का।इसी प्याज़ के दाम ने दिल्ली की सत्ता पलट दी थी । वरना लोग सब्ज़ियों को घास ही नहीं डालते थे? तेल घी दाल तिलहन से लोग डरते थे कि मँहगाई न बढ़ जाये ।  डीजल पेट्रोल से लोग डरते थे कि  कहीं ग़रीबी में आँटा न गीला कर दे। नेताओं की नींद हराम हो गई इन सब्ज़ियों के मारे।चुनाव के पहले जनता की मिन्नत करो-चुनाव के बाद अब इन सब्ज़ियों की मिन्नत करो।सरकार चलाना आसान है क्या!

कभी प्याज़ के भाव आँख दिखाते हैं तो कभी ’टमाटर" । सरकार इनके भाव रोकने के लिए "युद्ध स्तर" की तैयारी करती है । इतनी तैयारी तो सरकार पाकिस्तान और चीन के घुसपैठ रोकने भी नहीं करती है । अभी प्याज को ठीक किया नहीं कि आलू ने आँख दिखाना शुरु कर दिया । अभी आलू को पकड़ा तो अब टमाटर । टमाटर 100/- के पार जाने के तैयारी कर रहा है । अब सरकार के "युद्ध स्तर" की तैयारी का मुंह टमाटर की ओर मुड़ गया । पाकिस्तान समझ गया कि अभी भारत की "युद्ध स्तर की तैयारी" टमाटर की तरफ़ है अत: पाकिस्तान सीमा पर 10-20 घुसपैठिये भेज दिया। चीन ने घुसपैठ कर दिया।

हमें तो इस "टमाटर" भाव वृद्धि में विदेशी शक्तियों का हाथ नज़र आ रहा है कि इस टमाटर की औक़ात  कि 5/- किलो  वाली हैसियत की सब्ज़ी 100/- किलो में बात करे? ’विदेशी शक्तियों का हाथ" -वाली थ्योरी भारत में ख़ूब चलती है ।जब चाहे तब चला दो।  विदेशी शक्तिया  सोचती हों कि भारत सरकार  के ’युद्ध स्तर ’ की तैयारी को इसी ’आलू-प्याज़-टमाटर ’ के भाव में उलझाये रहो कि इधर देखने की फ़ुरसत ही न मिले। फिर जनता ,अपनी सरकार को कोसना छोड़ -विदेशी शक्तियों को कोसना शुरू कर देती है। जनता भी खुश -सरकार भी ख़ुश। जनता ख़ुश इस लिये कि विदेशी शक्तियों को कोसने से ’देशभक्ति’ का मामला बन जाता है। सरकार ख़ुश इसलिए की क्या टोपी पहनाई है जनता को। और टमाटर खुश इस लिए कि उसका भी भाव बढ़ गया वरना तो लोग उसकी हैसियत को समझ ही नहीं रहे थे और ’टमाटर ’चटनी बना रहे थे अब तक।
इधर, जब से श्रीमती जी ने टमाटर लाने के नाम पर , मुझसे बार बार पैसे माँगना शुरु कर दिया तभी मेरे काम खड़े हो गए ,हो न हो ये महिला ज़रूर ’टमाटर’ के नाम से मुझ से छुपा कर कुछ अपने लिए बचत कर रही होगी। पिछले महीने ही कोई साड़ी देख कर आई थी और मैने ’गाँधी जी’ के धोती दर्शन पर व्याख्यान दे दिया था। अपने इस शक को मिटाने के लिये तो ’सी0ए0जी0 [CAG] ko  क्या लगाता । उनकी रिपोर्ट भी आती तो कौन सा एक्शन हो जाता ,सो मैने ’ श्रीमती के इस पैसे की माँग की खुद ही आडिट करने की सोची और घोषणा कर दी कि अब ’टमाटर’ मैं ही लाऊँगा।
एक झोला ले कर सब्ज़ी मंडी पहुँच गया
" भैया ! टमाटर क्या भाव लगाया"
"100/-किलो"
"मगर पहले तो ये 10/-किलो बिक रहा था"
  टमाटर वाले ने मुझे ऊपर से नीचे बड़े गौर से देखा फिर कुछ सकुचाते हुए पूछा
" स्साब ! आप सीधे ’सतयुग" से " कलियुग’ में पैदा हुए हैं क्या ?"
मैं इसका निहित अर्थ न समझ सका और अपनी मोल-भाव का हुनर प्रदर्शित करता रहा और कहा
" मगर दूरदर्शन वाले तो 80/- किलो बता रहे थे ।"
"तो दूर दर्शन पर ही ख़रीद लो स्साब"
"नहीं नहीं ,मैं तो कह रहा था कि......"
" देखो स्साब ! आप शरीफ़ आदमी दिखते हो ..बोहनी का टैम है ..आप को 90/-लगा देगा ..एक दाम ..बस
 मैं "टमाटर"  ख़रीद के क्या मरता कि उसके इस शरीफ़ वाले विशेषण पर मर गया । कम से कम दुनिया में एक आदमी ने मुझे "शरीफ़’ समझा।मैने भी अपनी ’शराफ़त’ की लिहाज़ रखते हुए बड़े शान से अपना झोला बढ़ाते हुए कहा
"तो ठीक है ..दे दो 100 ग्राम टमाटर इस झोले में "
टमाटर वाले ने एक बार मुझे ऊपर से नीचे बड़े गौर से देखा फिर कुछ सकुचाते हुए पूछा
"आप  हिन्दी के कवि हैं  स्साब ?
"हां ,हाँ ,बन्धु ! मगर तुम्हें कैसे पता ?"
" हिन्दी का ’कवि’ इस से ज़्यादा "टमाटर’ ख़रीद भी नहीं सकता"

 एक बार फिर मैं इसका निहित अर्थ न समझ सका।

 लौट के ’आनन्द’ घर को आये
अब श्रीमती जी फिर से सब्ज़ी लाना शुरु कर दी हैं। शायद साल के अन्त होते होते वो वाली साड़ी खरीद ही लें।
अस्तु

-आनन्द.पाठक-
09413395592









मंगलवार, 22 जुलाई 2014

एक सूचना : मैं नहीं गाता हूँ.....[गीत ग़ज़ल संग्रह]




मित्रो !
आप सभी को सूचित करते हुए हर्ष का अनुभव हो रहा है कि आप लोगों के आशीर्वाद व प्रेरणा से मेरी चौथी किताब "मै नहीं गाता हूँ....." [ गीत गज़ल संग्रह] सद्द: प्रकाशित हुई है
3-किताबें जो प्रकाशित हो चुकी हैं

1  -शरणम श्रीमती जी ----[व्यंग्य संग्रह}

2 - अभी सम्भावना है ...[गीत ग़ज़ल संग्रह]

3 - सुदामा की खाट .....[व्यंग्य संग्रह] 

मुझे इस बात का गर्व है कि इस मंच के सभी मित्र  इन तमाम गीतों और ग़ज़लों के आदि-श्रोता रहे हैं और सबसे पहले आप लोगो ने ही इसे पढ़ा ,सुना और आशीर्वाद दिया है


मिलने और प्रकाशक का पता  ---[मूल्य 240/-]

   अयन प्रकाशन
1/20 महरौली ,नई दिल्ली- 110 030

दूरभाष 2664 5812/ 9818988613
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पुस्तक के शीर्षक के बारे में कुछ ज़्यादा तो नहीं कह सकता ,बस इतना समझ लें

मन के अन्दर एक अगन है ,वो ही गाती है
मैं नहीं गाता हूँ......

इस पुस्तक की भूमिका आदरणीय गीतकार और मित्र श्री राकेश खण्डेलवाल जी ने लिखी है 
आप लोगों की सुविधा के लिए यहाँ लगा रहा हूँ ...
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कुछ बातें


कभी हिमान्त के बाद की पहली गुनगुनाती हुई सुबह में किसी उद्यान में चहलकदमी करते हुए पहली पहली किरणों को ओस की बून्दों से प्रतिबिम्बित होकर कलियों की गंध में डूबे इन्द्रधनुष देखा है आपने ? कभी पांव फ़ैलाये हुये बैठे हवा के झोंके से तितलियों के परों की सरगोशी सुनी है आपने ?तट पर किसी पेड़ की झुकी हुई पत्तियों की परछाईं से महरों की आंखमिचौली का आनन्द लिया है आपने ??

संभव है आपकी व्यस्त ज़िन्दगी में आपको समय न मिल सका हो इन सब बातों के सुनने और अनुभूत कर पाने के लिये लेकिन यह सभी बातें सहज रूप से आपको मिल जाती हैं आनन्द पाठक के गीतों में । और सबसे अहम बात तो ये है कि सब अनुभूतियाँ उनकी रचनाओं में ऐसे उतरती हैं मानो उनके अधरों से फ़िसलते हुये सुरों के सांचे में भावानायें पिघल कर शब्द बन गई हों और आप ही आप आकर बैठ गई हों.

आनन्द पाठक की प्रस्तुत पुस्तक  -"मैं नहीं गाता हूँ...." में  संकलित जो रचनायें हैं वे न केवल उनकी सूक्ष्मदर्शिता की परिचायक हैं अपितु आम ज़िन्दगी के निरन्तर उठते प्रश्नों का मूल्यांकन करने हुये समाधान की कोशिश करती हैं. वे अपने आप को समय के रचनाकार से विलग नहीं करते:-

शब्द मेरे भी चन्दन हैं रोली बने
भाव पूजा की थाली लिये आ गया
तुमको स्वीकार हो ना अलग बात है
दिल में आया ,जो भाया, वही गा गया

और बिना किसी गुट में सम्मिलित हुये सबसे अलग  अपनी आप कहने की इस प्रक्रिया में आनन्द जी पूरी तरह सफ़ल रहे हैं ।रोज की ज़िन्दगी के ऊहापोह और असमंजस की स्थितियों को वो सहज वार्तालाप में बखान करते हैं—

आजीवन मन में द्वन्द रहा मैं सोच रहा किस राह चलूँ
हर मठाधीश कहता रहता मैं उसके मठ के द्वार चलूँ
मुल्ला जी दावत देते हं, पंडित जी उधर बुलाते हैं
मन कहता रहता है मेरा, मैं प्रेम नगर की राह चलूँ

और उनके मन का कवि सहसा ही चल पड़ता है सारी राहों को छोड़ ,एक शाश्वत प्रीति के पथ पर और शब्द बुनने लगते है वह संगीत जो केवल शिराओं में गूँजता है. मन सपनों से प्रश्न करने लगता है और उन्ही में उत्तर ढूँढ़ते हुये पूछता है

तुमने ज्योति जलाई होगी , यार मेरी भी आई होगी ?

और प्रश्न बुनते हुये यह अपने आप को सब से अलग मानते हुये भी सबसे अलग होने को स्वीकृति नहीं देता
ये कहानी नई तो नहीं है मगर
सबको अपनी कहानी नई सी लगे
बस खुदा से यही हूँ दुआ मांगता
प्रीति अपनी पुरानी कभी न लगे

आनन्द जी के गीत जहाँ  अपना विवेचन और विश्लेषण ख़ुद करते हैं वहीं एक सन्देश भी परोक्ष रूप से देते जाते हैं-

मन के अन्दर ज्योति छुपी है क्यों न जगाता उसको बन्दे

और

जितना सीधी सोची थी पर उतनी सीधी नहीं डगरिया
आजीवन भरने की कोशिश फिर भी रीती रही गगरिया

आनन्द जी के गीतों में जहाँ अपने आपको  अपने समाज के आईने में देखने की कोशिश है वहीं अनुभूति की गहराईयों का अथाहपन भी. उनकी इस अनवरत गीत यात्रा में इस पड़ाव पर वे सहज होकर कहते हैं

जीवन की अधलिखी किताबों के पन्नों पर
किसने लिखे हैं पीड़ा के ये सर्ग न पूछो.


आनन्द जी की विशेषता यही है कि उनकी कलम किसी एक विधा में बँध कर नहीं रहती. जब ग़ज़ल कहते हैं तो यही आनन्द फिर ’आनन’ [तख़्ल्लुस] हो जाता है। सुबह का सूर्य चढ़ती हुई धूप के साथ जहाँ उनके मन के कवि को बाहर लेकर आता है वहीं ढलती हुई शाम का सुनहरा सुरमईपन उन्के शायर को नींद से उठा देता है और वे कहते हैं

हौसले   परवाज़  के लेकर  परिन्दे   आ  गए
उड़ने से पहले ही लेकिन पर कतर  जातें हैं क्यों?

लेकिन व्यवस्था की इस शिकायत के वावज़ूद शायर हार नहीं मानता और कहता है

आँधियों से न कोई गिला कीजिए
लौ दिए की बढ़ाते रहा कीजिए

सीधे साधे शब्दों में हौसला बढ़ाने वाली बात अपने निश्चय पर अडिग रहने का सन्देश और पथ की दुश्वारियों ने निरन्तर जूझने रहने का संकल्प देती हुई यह पंक्तियाँ आनन्द पाठक  ’आनन’ की सुलझी हुई सोच का प्रमाण देती हैं हर स्थिति में गंभीर बात को व्यंग्य के माध्यम से सटीक कहने की उनकी विशिष्ट शैली अपने आप में अद्वितीय है. स्वतंत्रता के ६७ वर्षों के बाद के भारतीय परिवेश की सामाजिक और राजनीति परिस्थितियों से पीड़ित आम आदमी के पीड़ा को सरल शब्दों में कहते हैं

जो ख्वाब हमने देखा वो ख्वाब यह नहीं है
गो धूप तो हुई है पर ताब  वो नहीं है

और अपनी शिकायतों के एवज में मिलते हुये दिलासे और अपनी  आस्थाओं  पर अडिग रहते हुए भरोसे की बातें दुहराई जाने पर उनका शायर बरबस कह उठता है

तुमको खुदा कहा है किसने? पता नहीं है
दिल ने भले कहा हो हमने कहा नहीं है.

आनन्दजी की कलम से निकले हुये गीत, गज़ल लेख और व्यंग्य अपनी आप ही एक कसौटी बन जाते हैं जिस पर समकालीन रचनाकारों को अपनी रचनाओं की परख करनी होती है. 

मेरी आनन्दजी से यही अपेक्षा है कि अपनी कलम से निरन्तर प्रवाहित होने वाली रचनाओं को निरन्तर साझा करते रहें और बेबाक़ कहते रहें

सच सुन सकोगे तुम में अभी वो सिफ़त नहीं
कैसे सियाह रात को मैं चाँदनी कहूँ  ?

शुभकामनायें
राकेश खंडेलवाल
१४२०५ पंच स्ट्रीेट
सिल्वर स्प्रिंग, मैरीलेंड ( यू.एस.ए )
+१-३०१-९२९-०५०८
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पुस्तक प्राप्ति का पता  ...मूल्य 150/-
अयन प्रकाशन
1/20 महरौली नई दिल्ली 110 030
दूरभाष 011 2664 5812
मोबाईल 098189 88613

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-आनन्द.पाठक
09413395592

शनिवार, 14 जून 2014

व्यंग्य 23 : हुनर सीखो....




मेम साहब-आज मैं काम पर आने को नहीं ।एक महीने के लिए गाँव जा रही हूं। मेरा हिसाब कर के चेक घर पे
कूरियर से  भिजवा देना-’- बाई ने अक्टिवा स्कूटर पर बैठे बैठे ही मोबाईल से फोन किया

 मेम साहब के पैरों तले ज़मीन खिसक गई -अरे सुन तो ! तू  है किधर अभी?’

’मेम साहब ! मैं आप के फ्लैट के नीचे से बोल रही हूँ

जब तक श्रीमती जी दौड़ कर बालकनी में नीचे देखने आती कि बाई ने अपना स्कूटर स्टार्ट किया और हवा हो गई
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’बाई चली गई-लो पकड़ो झाड़ू-पोंछा "- श्रीमती जी नीला पीला होते हुए पोंछे की बाल्टी थमा दिया
मैं बाल्टी पकड़े सोचता रहा कि एक चाय वाला कैसे प्रधानमन्त्री बनता है और एक IIT-रूड़की का 
पास आऊट ,इंजीनियर भारत सरकार के प्रथम श्रेणी का राजपत्रित अधिकारी चीफ़ इन्जीनियर कैसे पोंछा लगाता होगा स्मृति इरानी जी को स्मरण किया ...अपनी डीग्रियाँ अपना सर्टिफ़िकेट याद कर रहा था कि अचानक श्रीमती जी चीखी

’अरे अभी तक यहीं खड़े हो ? शुरू नहीं किया ?सुना नहीं प्रधानमन्त्री ने क्या कहा  । डीग्री  सर्टिफ़िकेट काम नहीं आयेगी -हुनर ही काम आयेगा ,हुनर !

झाड़ू-पोंचा का हुनर सीख लो ..रिटायर्मेन्ट के बाद काम आयेगा...व्यंग्य लेखन से कुछ ज़्यादा  ही कमा लोगे....

’मम्मी । पापा के आफ़िस का ड्राईवर आ गया’- छोटे बेटे ने खबर दी

’जा ,बोल दे .wait करे साब पोछा लगाने के बाद आफ़िस जायेगा

’अरे भाग्यवान ! ऐसा मत कहना ,वरना कल वो अपनी गाड़ी का चाबी भी थमा देगा -ड्राईवरी भी सीख लो साहब -हुनर है बाद में काम आयेगा

-काश मैं भी उस कामवाली बाई के साथ ही भाग गया होता

-आनन्द.पाठक-
09413395592

रविवार, 25 मई 2014

व्यंग्य 22 : चिरौंजी लाल कहिन.....


चिरौंजी लाल कहिन........

"शादी तो जनाब हमारे ज़माने में हुआ करती थी । आजकल जैसा नहीं कि बस चट मँगनी और पट विवाह ,झटपट तलाक। शाम ढले बारात गई और रात रहे वापस"- आते ही आते गुस्से से भरे चिरौंजी लाल ने कहा
-" आज सुबह ही सुबह किधर से आ रहे हैं ?"-मैने जिज्ञासा प्रगट की
" अरे जनाब ! मत पूछिए। भिखमंगे हैं सब भिखमंगे। कहते थे कलकत्ता में बिजनेस है,मुम्बई में बिजनेस है। सुबह होने से पहले ही हाथ जोड़ लिए।न नाश्ता .न पानी। विदाई कर दी...ढोल के पोल है सब...। यह भी कोई शादी हुई ? आप ही बताइए।"
मैं उनकी मुखाकॄति व आक्रोश भाव से समझ गया कि आज फिए किसी बारात से सीधे आ रहे हैं और वहाँ उनकी सेवा भाव में कुछ कमी रह गई होगी।
"अरे कोई बात नहीं ,हम आप को नाश्ता-पानी करा देते हैं’- मैने तो यह बात मित्र-धर्म भाव से कही थी परन्तु श्रीमती जी सचमुच नाश्ता-पानी की व्यवस्था करने चली गईं\चिरौंजी लाल जी सद्य: अनुभवित शादी वृतान्त क्रम जारी रखे रहे।
"....जनाब शादियाँ तो हमारे ज़माने में हुआ करती थीं। क्या शादियाँ हुआ करती थीं।साल भर से बात चला करती थी।जाति परखी जाती थी ,परिवार परखा जाता था,खानदान परखा जाता था खून परखा जाता था।अब आप समझिए कि उस ज़माने में लड़्का-लड़की की शादी नहीं हुआ करती थी ’मूछों’ की शादी होती थी । गाँव की इज़्ज़त का सवाल होता था। गाँव की मूछ नीची नहीं होनी चाहिए।बाबू साहब की मूँछ नीची हो गई तो पूरे गाँव की मूछ नीची हो जायेगी।चिरौंजी लाल जो कहिन सो कहिन..।

और अब?

-"अब तो लोगो ने मूछें ही रखना ही छोड़ दिया।क्लीन शेव हो गये सब के सब...."
चिरौंजी लाल अपना दुख दर्द सुनाते रहे और बीच बीच में मैं हाँ हूँ करता रहा, उनको यह प्रतीत न हो कि मैं उनका कथा-पुराण नहीं सुन रहा हूँ।उनका आख्यान जारी रहा।

"....कितने शान से हम लोग कहा करते थे फ़लाना गाँव में हमारी बेटी व्याही हुई है।हमारी बेटी ,माने सारे गाँव की बेटी। पूरा गाँव घराती हो जाता था।चिरौंजी लाल जो कहिन सो कहिन ...। और अब...?अब तो समझिए जनाब कि....अखबार में विज्ञापन देकर शादी कर रहे हैं...जैसे एवरेस्ट मसाले...अशोक मसाले...बेंच रहें हो...."
चिरौंजी लाल जी अभी और कुछ ’पुराने ज़माने’ ’नये ज़माने’ की तकनीकी पहलुओं का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते और बीच बीच में ’कहिन सो कहिन’ करते-मैनें बीच ही में बात काटना उचित समझा। बिल्कुल वाल्मीकि जी की तरह स्वत: एक श्लोक अकस्मात प्रस्फुटित हो गया-

पुराणमित्येव न साधु सर्वम् ,न चापि सर्वम नवेति अवद्यम्
सन्त: हृदयात् अन्त: परिक्ष्यते ,मूढ: परिप्रत्यनेव  बुद्धि
अर्थात हे चिरौंजी लाल! यह परम्परा पुरानी है इसलिए सब कुछ अच्छा है और यह परम्परा नई है इसलिए अच्छा नहीं है- ऐसी बात नहीं है। श्रेष्ठ जन किसी भी चीज़ को पहले हृदय से विचार करते हैं जब कि मूढ़ लोग तुरन्त मान लेते हैं
मेरे इस अक्स्मात व अप्रत्याशित श्लोक वाचन से चिरौंजी लाल जी का मुँह खुला का खुला रह गया जैसे लालू जी ने ’जूलियस सीज़र’ का कोई संवाद बोल दिया हो।चेतनावस्था में आते ही उन्होने अपनी शंका प्रस्तुत की-" तो जनाब ! पूर्व जनम में  आप संस्कृताचार्य थे?"
 " अरे नहीं भाई !जैसे पूर्व जनम में आप नारद नहीं थे’-मैने कहा
फिर हम दोनों सद्य: नेवेदित परस्पर विशेषणों पर हँसने लगे कि इसी अन्तराल में श्रीमती जी ने नाश्ता प्रस्तुत किया

ऽऽऽऽ          -----   ..............

चिरौंजी लाल कोई काम करते हो या न करते हों ,परन्तु एक काम बड़े मनोयोग और ईमानदारी से करते हैं-और वो काम है हर किसी की शादी में शामिल होना। मुहल्ले में किसी की शादी हो और चिरौंजी लाल जी शामिल न हों-हो नही सकता।
दुनिया इसे उनका आत्मसुख मानती है पर वो इसे पुनीत कार्य में अपना ’योगदान’ मानते हैं।यदा-कदा अपने इस योगदान में उन्हें ख़तरा भी उठाना पड़ जाता है विशेषत: तब जब ’वर-पक्ष’ और ’कन्या-पक्ष’ किसी बात पर वास्तविक रूप से भिड़ जाते हैं। और इनके पक्ष वाले इन्हें अग्रिम मोर्चे पर किसी सैनिक की तरह खड़ा कर देते हैं और एकाध डंडा ये भी खा लेते हैं। ऎसे लोग महान होते है,हानि-लाभ से परे होते हैं,यश-अपयश से ऊपर होते हैं,हास-परिहास से मुक्त होते हैं। निन्दा-स्तुति से निर्विकार होते हैं। इनके इन्हीं गुण विशेष और विशेषत: इनके इसी योद्धापन से प्रभावित होकर, मुहल्ले वाले शादी का प्रथम निमन्त्रण पत्र इन्हें अवश्य भेंजते हैं।
चिरौंजी लाल जब किसी बारात से लौट कर आते हैं तो किसी विजयी योद्धा की तरह सप्ताह पर्यन्त आद्योपान्त सजीव वर्णन करते हैं । द्वार पूजा से लेकर विदाई तक।कैसे नत्थू भाई ने गोली चलाई कि घोड़ी भड़क गई।कैसे घोड़ी ने दुलत्ती मारी कि दुल्हे भाई जमीन पर आ गिरे।कैसे लड़की वालों ने मितव्ययिता का परिचय दिया कि एक ही कुल्हड़ में मिठाई और नमकीन रख दी । नाश्ता कर लेना और उसी कुल्हड़ से पानी पी लेना। कैसे हम बारातियों ने लड़की के बाप के पसीने छुड़ा दिये कि अन्त में पानी माँगने लगा।कैसे लड़के ने ’खिचड़ी’ नहीं खाई तो लड़की के बाप ने पैर पर ’पगड़ी’ रख दी। मुहल्ले वाले बड़े चाव से सुनते थे ऐसे क़िस्से।सम्भवत: वो भूल जाते थे कि उनके भी घर में कोई लड़की है जिसकी शादी में ऐसा ही कोई चिरौंजी लाल आयेगा।......

लेकिन उससे ज़्यादा रोचक प्रसंग वह तब सुनाते थे जब किसी शादी में वास्तविक लड़ाई हो जाती थी और ’वर-पक्ष’ और ’कन्या-पक्ष’ सशरीर भिड़ जाते थे।तब चिरौंजी लाल जी बराती न होकर ’योद्धा’ बन जाते थे। फिर ’लोहा सिंह’ के नाटक की तरह वर्णन करते थे--"....जब मैं काबुल के मोर्चे पर था ...खदेरन का मदर...तब दुश्मन की फ़ौज़ को...। कैसे हलवाई की भट्टी से एक जलता हुआ चैला निकाला ...कि सारे लड़की वाले भाग खड़े हुए"। इनकी अपनी वर्णन शैली है और इनका अपना इतिहास है।

चिरौंजी लाल का वास्तविक नाम ’चिरंजीव लाल ’ है ।उनके माता-पिता ने कितना सोच कर इतना अच्छा नाम रखा था। मगर वो जब से शहर में आ कर बसे है कि चिरंजीव लाल से ’चिरंजी लाल’ हो गए औए कालान्तर में भाषा-विज्ञान के श्राप से ’चिरौंजी लाल ’ हो गए। शहरवालों की यह अपनी नामकरण शैली है-जैसे गाँव का ’लालू’ शहर में आकर ’लल्लू’ और फिर ’ललुवा’ हो जाता है। जैसे पहले यहाँ का श्रमिक मारीशस सूरीनाम में पहले ’एग्रीमेन्ट-लेबर’ फिर ’एग्रेमेन्टिया लेबर ’ और अन्त मे ’गिरमिटिया लेबर’ हो जाता था। भाषा-विज्ञान में इसे मुख-सुख कहते हैं।

चिरौंजी लाल अपना कोई काम करें न करें परन्तु दूसरों का काम करने हेतु सर्वदा तत्पर रहते हैं।किसी का कोई कचहरी का काम हो,आफ़िस पोस्ट-आफ़िस का काम हो,स्कूल-अस्पताल का काम हो ,हमेशा आप के साथ खड़े मिलेंगे। परन्तु थाना-पुलिस के कार्यों से क्यों दूर रहते हैं आज तक रहस्य बना हुआ है।उनके इन्ही गुण-विशेष से उन्हें कभी भी चाय-पानी की दिक्कत नहीं हुई।जहां बैठ गए ,वहीं महफ़िल।मुद्दों की कोई कमी नहीं।बिना मुद्दे के वह घंटों गुज़ार सकते हैं किसी सिद्ध नेता की तरह। आवश्यकता है तो बस छेड़ने की।फिर क्या!
अख़बार का पुलिंदा दबाए चिरौंजी लाल जी सुबह ही सुबह पधारे
"...कैसे कैसे हो गए हैं आजकल लोग ,दहेज के नाम पर...हर लड़के का बाप लगता है कि भूखा-नंगा खड़ा है...कैसे नोच लें लड़की के बाप को...?"
मैं समझ गया आज फिर कोई लड़की फाँसी चढ़ गई । चिरौंजी लाल जी जारी रहे...
"....अरे जनाब ! दहेज तो हमारे ज़माने में लोग माँगा  करते थे -देने वाला खुश.लेने वाला खुश।चिरौंजी लाल कहिन सो कहिन।जनाब एक बार एक बारात में गए थे हम,।...वर-पक्ष और कन्या-पक्ष में पहले से ही सब कुछ तय हो गया था। लड़की के पिता अच्छे गृहस्थ थे,अच्छी खेती बारी थी । बारात गई ,द्वार-पूजा हुई ,स्वागत भाव हुआ ,जलपान हुआ।मंगलाचरण के समय लड़के के पिता [समधी] की दृष्टि खूंटे पर बँधी एक गाय पर पड़ गई।समधी जी का मन विचलित हो गया।कैसे यह गाय माँगी जाय। लेन-देन तय होते समय यह ’गाय’ सूची में तो नहीं थी । अब इसे कैसे जोड़ा जाय।अब उन्हें द्वार-पूजा,पाँव-पूजा मंगला चरण विधि-विधान से कोई लगाव नहीं रह गया । यह सब तो पंडितों का काम है वो तो कर ही रहे हैं ।हमें तो ’गाय’ लेनी है ,जुगत भिड़ानी है।लड़के के बाप जो ठहरे।
द्वार-पूजा कार्यक्रम के पश्चात ,बारात वर ठहराव स्थल [जनवास] वापस भी आ गई।मगर समधी जी का मन वहीं द्वार पर बँधी ’गाय’ में अटक गया।विवाह के अगले कार्यक्रम की तैयारी होने लगी मगर समधी जी उधेड़ बुन में लग गए।कन्या-पक्ष से ’वर-मेटी’[आज्ञा] माँगने का संदेश आया। अचानक समधी जी का दिव्य-ज्ञान जग गया-यही अवसर है बदले में गाय माँगने का।अत: उन्होने नि:संकोच अपनी माँग रख दी।इस अकस्मात और असामयिक माँग से कन्या-पक्ष ’भौचक’ हो गया और उस के बाद ’भौं’..भौं..चक..चक शुरु हो गया}अब कन्या-पक्ष ने अपनी असमर्थता व्यक्त की। दोनों पक्षों में हुज्जत शुरु हो गई। दोनो समधी ’मुख-सुख’ पर उतर आये।’आप ने मुझे क्या दिया....आप ने मुझे कहाँ का छोड़ा...अरे अपनी भी इज्जत है 10 गाँव में.......तो हम क्या भिखमंगे नज़र आते हैं ..हम लड़के के बाप है ..लड़के के....

विवाद निरन्तर बढ़ती ही जा रहा था । चिरौंजी लाल का ’योद्धापन’ करवटें बदलने लगा। उन्होने ’शिरस्त्राण’ और ’कवच’ पहना शुरु कर दिया न जाने कब इसकी आवश्यकता पड़ जाय।इसी वाद-विवाद के मध्य कन्या-पक्ष के किसी योद्धा ने ललकारा-"...अरे नहीं देता है मेटी तो छीन लो इस समधी के बच्चे से"
इस ललकार पर समधी जी सावधान हो गये।सचमुच अगर यह मेटी छिन जायेगी तो गाय नहीं मिल पायेगी। इस से पहले कि सचमुच कोई योद्धा आकर पॄथ्वीराज की तरह मेरी ’मेटी’ का अपहरण कर ले,समधी जी स्वयं मेटी लेकर पलायन कर गए। आगे आगे  समधी जी ,पीछे पीछे कन्या पक्ष।अनिवर्चनीय दॄश्य। इससे पहले कि वह पकड़े जाते,समधी जी मेटी लेकर पेड़ पर चढ़ गए।कन्या-पक्ष ठिठक कर पेड़ के नीचे खड़ा हो गया बिल्कुल उस कहानी की तरह जिसमें एक कौआ था ,उसकी चोंच मे वर की मेटी थी और नीचे कई लोमड़ियाँ खड़ी थीं।.........

मान मनौव्वल अनुग्रह-मनुहार शुरु हो गया । समधी जी की वीरता महानता का बखान शुरु हो गया।लोग उनके पराक्रम के क़सीदे पढ़ने लगे, तो कुछ लोग स्तुति वाचन करने लगे।कुछ लोग पुराने रिश्तों की दुहाई देने लगे तो कुछ लोग उनकी वंश परम्परा का इतिहास बताने लगे। इन सबका असर न उन पर पड़ना था, न पड़ा।चिरौंजी लाल ने कहा -’कन्या के पिता को गाय दे देनी चाहिए ,अरे वर के पिता ने ’गऊ माता’ की इच्छा ही तो प्रगट की है ,कोई सोना-चाँदी तो नहीं माँगा है। आख़िर लड़के का बाप है ।उसका भी कुछ हक़ बनता है कि नहीं?"। बारातियों में से 2-4 लोगों ने समवेत स्वर से समर्थन किया।
अन्त में पण्डित जी ने संदेश भिजवाया-" जजमान शीघ्रता करें ,मुहुर्त निकला जा रहा है।अन्ततोगत्वा ,कन्या के पिता ने समधी जी से कहा-"आप के लड़के के लिए अपनी बछिया तो दे ही रहा हूँ महराज, आप के लिए गाय की बछिया दे दूँगा । अब तो नीचे उतर आइए।"
दोनों समधी अपनी लेन-देन की क्षमता पर आत्म-मुग्ध हुए। फिर शादी का कार्यक्रम आगे बढ़ा।समधी जी ने भी दान की बछिया के दाँत नहीं गिने। यह अन्य बात है कि कालान्तर में वह बछिया ’बाँझ’ निकली।
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आज चिरौंजी लाल के हाथ में कोई अख़बार तो नहीं था ,मगर माथे पर चिन्ता की रेखा अवश्य थी। चेहरे पर कुछ सकुचाहट का भाव था जैसे वो कुछ पूछना चाहते हैं ,मगर पूछ नहीं पा रहे हों।अन्तत: उन्होने पूछ ही लिया
" किब्ला, ये इन्टर्नेट चैटिंग क्या बला होती है?"
" जब हम-आप टाइम पास करते हैं तो ’गलाचार’ कहते हैं और जब कम्प्युटर के माध्यम से लड़का-लड़की आपस में बात करते हैं तो ’इन्टर्नेट-चैटिंग’ कहते हैं। मगर आप को क्या आन पड़ी?"
-’सुना है फ़िरंगी लाल का बेटा इन्टरनेट चैटिंग से शादी कर रहा है। चैटिंग से शादी कैसे होती होगी? इसमें बारात में जाने का अवसर मिलता है क्या?"-चिरौंजी लाल ने अपना दर्द बताया
अब मैं पूरा मामला समझ गया।चिरौंजी लाल जी की चिन्ता का कारण-बारात सुख से वंचित- भी समझ गया। फिर मैने उन्हे विस्तार से समझाया कि कैसे लड़का-लड़की इंटरनेट से बातें करते हैं ,फिर एक दूसरे को समझते-बूझते हैं ,मिलते-जुलते हैं फिर शादी करते है। कभी कभी ’चैटिंग’ में ’चीटिंग’[धोखा] भी हो जाती है।
अभी मैं उन्हे समझा ही रहा था कि चिरौंजी लाल बीच में ही बोल उठे-’राम राम राम ! कईसा घोर कलियुग आ गया है ।जनाब! शादी से पहले मिलना-जुलना??"
-"हाँ ,तो क्या हुआ?"
-" आप कहते हैं कि क्या हुआ? अरे! कहिये कि क्या नहीं हुआ?’शादी से पहले मिलना-जुलना? तो बचा ही क्या?’चैटिंग से शादी? न खून का पता,न ख़ानदान का पता -चिरौंजी लाल कहिन सो कहिन
न अगुआ ,न पंडित ,न नाऊ
इन्टर्नेटी  शादी  देन हाऊ ?
[अगुआ : वो व्यक्ति जो दोनो पक्षों के बीच शादी और बातचीत लेन देन तय कराने में आगे रहता है और झगड़ा होने पर भाग जाता है फिर दोनो पक्ष उसे मिल कर खोजने लगते हैं]

’वाह वाह क्या मिसरा पढ़ा है ....सुभानाल्लाह सुभानाल्लाह..’-मैने दाद दिया उन्होने सर झुका लिया।
"अरे ! शादी तो जनाब हमारे ज़माने में हुआ करती थी ...शादी से पहले मिलना जुलना तो दूर.....लड़का लड़की एक दूसरे को देख भी नहीं सकते थे।
एक बार एक लड़के ने शादी से ठीक 2 दिन पहले लड़की देखने की इच्छा प्रगट की----जानते हैं लड़की के बाप ने क्या कहा? कहा-अगुआ जी !अगर यह लड़का मेरा होने वाला दामाद न होता न तो देता कान के नीचे दो...आज उसी लड़के का लड़का इंटरनेट से शादी कर रहा है...राम राम राम क्या घोर कलियुग आ गया है !"
" आप तो इन्हीं दकियानूसी विचारों के कारण अब तक यहीं बैठे रह गए।आगे नहीं बढ़ पाए "-मैने छेड़ा
’जनाब ! हम तो शादी कर के बैठे हैं ,वो तो तलाक़ दे के बैठे हैं"-चिरौंजी लाल जी ने रहस्य समझाया
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"दहेज के नाम पर लड़की ने बारात वापस कर दी ...कानपुर देहात..लड़के के पिता ने..." -चिरौंजी लाल जी ने आते ही आते मेरे सामने अख़बार पटक दिया। मैं समझ गया अब यह ’हिज मास्टर वायस’ की तरह पूरा रिकार्ड बजा कर ही दम लेगा।
-"...लड़की ने बारात वापस कर दी...? चिरौंजी लाल जी शुरु हो गए-"..राम राम राम ,क्या ज़माना आ गया।अरे बारात तो हमारे ज़माने में वापस हुआ करती थी।" न भूतो,न भविष्यत’। ऐसी घटनायें ,सैकड़ों में एक होती हैं। भृगु क्षेत्र बलिया गया था । कन्या पक्ष से आमन्त्रित था। बारात काशी क्षेत्र से कहीं से आई थी।लेन-देन में क्या तय हुआ था यह पता न चलता अगर उस रात झगड़ा न हुआ होता ।बारात सही समय पर पहुँची,द्वारपूजा हुआ ,मंगलाचरण हुआ। पता नहीं किस बात पर उन्नीस-बीस हो गई।
दोनों समधी एक ही व्यवसाय के थे ,समान मेधा स्तर के थे।दोनों ही पैसे को दाँत से पकड़ते थे। दोनों की मान्यता थी जो पैसा जेब से न निकले ,वही आमदनी है ,वही कमाई है।दोनों अपने को मितव्ययी कहते थे पर दुनिया उन्हे ’कंजूस’ कहती थी।कन्या के पिता को लगा कि जो स्वर्ण-हार वर पक्ष को चढ़ाना था वह किधर है? तो वर के पिता को लगा कि जो धनराशि लेन-देन में तय हुआ था वो किधर है? दोनो पक्ष अविश्वास के वातावरण से ग्रसित हो गये। फिर दोनों पक्षों के लोगों ने अपने अपने पक्ष को हवा देना शुरु कर दिया । अविश्वास का बादल घनीभूत होने लगा।
दोनों लोग पुनर्संशोधित  ’लेन-देन’ पर बहस कर ही रहे थे कि ’तम्बू-कनात’ वाले को कुछ शंका हो गई।इस पानीपत की लड़ाई में उसे अपना पैसा डूबता नज़र आया।तम्बू लगाया तो था लड़के वालों के लिए पर सट्टा[Agreement] किया था लड़की वालों ने। बारात वापस चली गई तो पैसा किस से वसूलेगा? लड़के वाले फिर कहाँ मिलेंगे?यही सुनिश्चित करने के लिए उस ने अपने बिल के भुगतान हेतु ’वर के पिता के समक्ष प्रस्तुत किया।वर के पिता भड़क उठे। डाँटते हुए भगा दिया -" हमसे क्यों माँगता है? जा उन से माँग जिस ने तुम से सट्टा किया है। इस अप्रत्याशित उत्तर से तम्बू वाला सकपका गया।
वर पिता यह रहस्य जानते थे कि सट्टा तो कन्या के पिता के नाम है। हम क्यों भरें? वही भरें ,वही भुगतें। जो ही 3000/- 4000/- की बचत होगी।ऊर्जा की बचत-ऊर्जा की कमाई।तम्बू वाला अब कन्या के पिता के पास गया।अपनी व्यथा कथा सुनाई।अब कन्या के पिता श्री के भड़कने की बारी थी ।
’क्या कहा?सट्टा हमने किया है ? लड़के वाले ने ऐसा कहा?अरे वो तो हमने उनके कहने पर उनकी तरफ़ से मदद के तौर पर तम्बू-कनात की व्यवस्था करा दी वरना लाते अपने यहाँ से।भलाई का ज़माना ही नहीं रहा ।अब कहते हैं कि पैसा नहीं देंगे। यह तो धोखाधड़ी है , विश्वासघात है । हे राम ! क्या ज़माना आ गया!आदमी का आदमी पर भरोसा करना मुश्किल हो गया...."
’मालिक हमारा हिसाब हो जाता तो ..."-तम्बू वाले ने गुहार लगाई
"अरे ! ठहर तो ज़रा ,क्या शोर मचाता है ...ज़रा फेरे तो पूरे होने दे ..हम कौन से भागे जा रहे हैं ...कि तू मरे जा रहा है ?"
 सिन्दूरदान हो गया।फेरे भी पूरे हो गये।कन्या के पिता ने तम्बू वाले को बुलाया-" ला अपना बिल ...ले अपना हिसाब। कहते हैं सट्टा मेरे नाम से है ...तो जा उखाड़ दे तम्बू ...’-कन्या के पिताश्री ने आदेश दिया।
उधर वरपक्ष तम्बू में बैठ कर अगली रणनीति पर गहन विचार कर रहा था कि तम्बू वाले ने सचमुच तम्बू उखाड़ना शुरु कर दिया । इस अप्रत्याशित ’तम्बू उखाड़न प्रक्रिया’ से  वरपक्ष भौचक रह गया। अब कौन सी रणनीति बनेगी ? युद्ध में जो पहले प्रहार कर दे वो विजयी।अब खुले आसमान के नीचे बारात पड़ी रहे ये तो सरासर अपमान है। अरे भाई ,हम लड़के वाले हैं ,कोई उठाईगीर नहीं । वर पक्ष के सिपहसालारों ने सलाह दी-" अरे तम्बू उनका है तो क्या रेलवे प्लेटफ़ार्म तो उनका नहीं । अब अगली रणनीति हम वहीं बैठ कर बनायेंगे।
आधी रात को पूरी की पूरी की बारात रेलवे प्लेटफ़ार्म पर आ गई- चिरौंजी लाल ने बताया
"नहीं ,पूरी बारात तम्बू उखड़ने के पहले ही प्लेटफ़ार्म पर आ गई थी"- मैने संशोधन प्रस्तुत किया
"अरे! आप को कैसे मालूम? घटना तो 30 साल पुरानी है"- चिरौंजी लाल विस्मित हो गए
" क्योंकि उस शादी की रात मौर पहने खाली पेट प्लेटफ़ार्म पर मैं ही सोया था"
" अजी छोड़िए भी ,क्या एक ही बात को फेंट रहे है 30-साल से"--श्रीमती जी ने सकुचाते हुए कहा और नाश्ता रख कर भीतर चलीं गईं

अस्तु     
-आनन्द.पाठक