सोमवार, 17 जुलाई 2023

हिंदी साहित्य लेखन --शरद जोशी जी की नज़र में---

  हिंदी साहित्य लेखन --शरद जोशी जी की नज़र में---


  मेरे हास्य-व्यंग्य लेखन यात्रा में हिंदी और उर्दू के अनेक व्यंग्यकारों का प्रभाव ज़ रहा जिसमें हिंदी में आ0 [स्व0]  हरिशंकर परसाई जीऔर आ0[स्व0] शरद जोशी का विशेष और उर्दू में शौक़त थानवी और फ़िक्र तौंसवीं का ज़्यादा प्रभाव रहा है। [यहाँ उन सभी माननीय व्यंगकारों के नाम लिखने से सूची लम्बी हो जायेगी और इस लेख का यह विषय भी नहीं है।]  परिणाम स्वरूप मेरी पहली पुस्तक -शरणम श्रीमती जी -[ व्यंग्य संग्रह] ही छपी। बाद में अन्य व्यंग्य संग्रह भी छपे जैसे --सुदामा की खाट--अल्लम गलाम बैठ निठ्ठलम --रोज़ तमाशा मेरे आगे।

शरद जोशी जी ,के0पी सक्सेना जी और अन्य व्यंग्यकारों ने मिल कर , कवि सम्मेलन और मुशायरों की तर्ज़ पर -मंच से व्यंग्य पढ़ने की एक वाचिक परम्परा शुरु की थी। परन्तु यह कार्यक्रम बहुत दिन तक न चल  सका । आजकल इस परम्परा के ध्वजा वाहक आ0 सम्पत सरल जी[ जयपुर]हैं जो बस नाम से ही ’सरल’ हैं वरना अपने नुकीले पैने और तीक्ष्ण व्यंग्य से लोगों की टांग ही नही, कान भी खीचते है। यहाँ पर उन तमाम व्यंग्यकारों के लेखन शैली का तुलनात्मक अध्ययन की बात नहीं करूँगा.। बस शरदजोशी जी के - पचास साल बाद -शायद -आलेख की चर्चा करूंगा जिसे उन्होने अपनी  एक पुस्तक की भूमिका के रूप में लिखा था जिसमे उन्होने उस समय पचास साल की कैसी कल्पना की थी। जोशी जी कोई भविष्य वक्ता नही थे और न ही कोई ज्योतिषी ही थे। मगर एक समर्थलेखक के रूप में भविष्य द्र्ष्टा अवश्य थे जो आज सिद्ध होती नज़र आ रही है।जोशी जी यह आलेख शायद 1975 में लिखा गया था और उस समय मैं रूडकी विश्वविद्यालय [ अब आई0आई0टी0] से इंजीनियरींग कर रहा था। आज 2023 चल रहा है50 साल पूर होने वाले है । उन्होने पचास पहले क्या लिखा था आप भी इसे 50-साल पहले के संदर्भ में देखे--

"---किताबों की उम्र केवल पचास साल बाक़ी है। उसके बाद किताबों का चलन बन्द हो जाएगा, क्योंकि लोगो के पास ज्ञानवर्धन के वैकल्पिक साधन होंगे।आजकल जो लेखक लिख रहे हैं वो ये सुन कर सन्तुष्ट होंगे कि चलो उनके जीते जी ऐसा नहीं हो रहा। सारा दोष अगली पीढ़ी पर लगेगा, जिनके लिखते लोगों ने पढ़ना बन्द किया ----"

यह बात उन्होने तब कही जब उस समय वैकल्पिक साधन ---इन्टरनेट--फ़ेसबुक--ह्वाट्स अप--त्वीटर --अदबी मंच -फ़ेसबुक-- इन्स्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया जैसे प्लेटफ़ार्म नहीं थे --फिर भी उन्होने यह देख लिया। कहते हैं लेखक के जिह्वा पर कभी कभी सरस्वती आ विराजती हैं। हम आप पाठकों के लिए लिखते हैं। वह आगे लिखते है--

"---साहित्यकारों ने पिछले वर्षों में बड़े बड़े ’एन्टी’ आन्दोलन चलाए --अकहानी--अकविता -अनाटक। मगर आगे पाठक ’अपुस्तक’ का अन्दोलन चलाएगा।किताबों के इनकार का आन्दोलन और वह साहित्यकारों को बड़ा भारी पड़ेगा।-----पाठक की उपेक्षा कर लिखना अलग बात है, मगर पाठक की अनुपस्थितिमें लिखना, खाली हाल में नाटक खेलने के समान भयावह्है। यदि ऐसा हुआ तो हिंदी के लेखक कवियॊ का क्या होगा।-----

क्या आप को नहीं लगता कि इस बात में कितनी सच्चाई है।आज कितने मंच खुल गए सोशल मीडिया पर। हर कोई लिख रहा हर कोई छप रहा है हर कोई विभिन्न मंचों से सम्मानित हो रहा है पुरस्कार स्वरूप सर्टीफ़ाई भी हो रहा है मगर  उसे हर बार यह स्वयं बताना पड़ता है कि मैं यहाँ --मैं वहां--ये फोटो मेरी देखो--ये सर्टिफ़िकेट मेरा देखॊ--। जोशी जी आगे अपनी व्यथा का विस्तार देते हुए लिखते हैं--

"--किताबें छपती नहीं, छपती हैं तो बिकती नहीं., बिकती हैं तो पढ़ी नहीं जातीं पढ़ी जाती हैं तो वे पसन्द नहीं की जाती, पसन्द की जाती हैं तो सस्ती और सतही होती है जिन्हें न छापा जाए उसकी बड़ी संख्या है जो उसे पुस्तक ही नहीं मानते हैं।यहाँ लेखक और प्रकाशक पुस्तक नहीं, पुस्तक का भ्रम जीते हैं।पाँच सौ का संस्करण छपने पर पाँच-छह वर्ष में बिकता है, तब लगता है व्यर्थ ही छपा। कोरा कागज होता तो कहीं जल्दी बिक जाता। लेखक लिखने को अभिशप्त है,प्रकाशक छापने को,। केवल पाठक की स्वतन्त्र सत्ता है। वह खरीदने को अभिशप्त नही----।

क्या आप को नहीं लगता कि आज से पचास साल पहले कही गई ये सब बातें आज कितनी प्रासंगिक है? क्या आप को नहीं लगता कि अब आत्मावलोकन,विचार विमर्श का समय  आ गया है। कुछ भी लिख देना साहित्य नहीं होता। साहित्य के नाम पर मंच पर तमाशा दिखाना ,साहित्य साधना नहीं होती।क्या जाने अनजाने हम इस भीड़ का हिस्सा नहीं बन रहे हैं। जोशी जी ने और भी बहुत से बातें कहीं--सभी का यहाँ उल्लेख करना उचित नहीं ज़रूरत भी नहीं।क्या हिंदी में साहित्य लेखन हाशिया गतिविधि है, फ़ुरसत का धन्धा है?यदि आप साहित्य साधक है , साहित्य प्रेमी साहित्यानुरागी हैं तो इन सब विषयों पर आप भी सोचिए अन्यथा जैसे चल रहा है चलने दीजिए।

अस्तु


-आनन्द पाठक-


मंगलवार, 27 जून 2023

एक व्यंग्य 108/05 : चिड़िया और दाना

 


चिड़िया और दाना 


माँ बचपन में यह किस्सा  सुना सुना कर मुझे सुलाती थी , आज वही किस्सा आप लोगों को 

सुना सुना कर जगा रहा हूँ। किस्सा कोताह यूँ कि----]


---इन्द्रप्रस्थ प्रदेश में एक चिड़िया रहती थी । उसे कहीं से चने का एक दाना मिला। उस दाने से वह चने का दाल बनाना

चाहती थी। उससे उसे चक्की [ चाकी ] में डाल कर पीसा मगर न चना ही बाहर आया न दाल ही बाहर आई ।

उसे लगा कि वह दाना चक्की के  ’खूटें"  में फँस गया है। अत: उसे निकलवाने के लिए बढ़ई के पास गई ।

उसने बढ़ई से कहा-


" बढ़ई ! बढ़ई ! तू खूँटा चीरा. खूँटवे में दाल बा

का खाइब ? का पीयब? का ले परदेश जाइब ?


[ अर्थात हे बढ़ई ! तू चल कर मेरा खूँटा चीर दे। उस खूंटे में मेरी दाल फँसी है --नहीं तो में क्या "खाऊँगी" क्या "पीउँगी"

और क्या ले कर परदेश जाउँगी ?

बढ़ई ने टका सा जवाब दिया--तू अभी जा। मैं अभी 2024 के एजेन्डे में बिजी हूँ--वह  मेरा एजेन्डा नहीं है -- तेरा एजेन्डा है

चिड़िया दुखी मन से बाहर आ गई. और  उस बढ़ई की शिकायत करने राजा के पास पहुँच गई।

उसने राजा से कहा-


राजा राजा तू बढ़ई डाँटा ,

बढ़ई  नू खूँटा चीरे. खूँटवे में दाल बा

का खाइब ? का पीयब? का ले परदेश जाइब ?

[अर्थात------]

राजा ने कहा-- तू अभी जा।  हम  अभी  किसी और एजेन्डे में बिजी हैं। वह मेरा एजेन्डा नहीं--  तेरा एजेन्डा है। जब तेरा एजेन्डा

’राज दरबार ’ ’राजसभा’ में आएगा तब देखेंगे----


चिड़िया दुखी मन से सड़क पर आ गई और चिल्लाने लगी--

" सब मिले हुए  हैं जी , सब मिले हुए है । अन्दर से सब मिले हुए हैं ।सब मेरी दाल  चुराना चाहते है-- मेरी दाल निकलेगी नहीं तो बनेगी कैसे? दाल गलेगी कैसे?

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किस्सा खतम -पैसा हजम।

सन्दर्भ ? जो समझ लें


-आनन्द.पाठक-