कवि-सम्मेलन और मुशायरों के खुले मंचों पर जो सुविधा कुछ कवियों और कुछ शायरों को सहज उपलब्ध है वह फ़ेसबुक ह्वाट्स अप मंचो पर उपलब्ध नहीं है। इसीलिए खुले मंच पर अदाओं से पढ़्ने वाले या वालियाँ अजीम शायर वरिष्ठ कवि माने जाते हैं ।कवयित्रियाँ भी और शायरा भी। मतलब जो दिखता है वो बिकता है ।कुछ लोग बिकते नहीं, अत: दिखते नहीं।
मुशायरॊ के खुले मंचॊं पर देखना पड़ता है कितनी तालियाँ बजी--किस कोने से बजी --, कितनी देर तक बजी,-- बैठे बैठे बजाई कि खडे होकर बजाई। नहीं बजाई तो फिर वही लाइन सुनाएंगे तब तक , जब तक कि--।कम बजी तो - तालियाँ वाह वाह दाद माँगते नज़र आयेगे- अरे भाई इतनी जोर से ताली बजाओ कि "दिल्ली’ तक सुनाई दे। हमें नही सुनना है, दिल्ली को सुनाना है।दिल्ली बहरी हो गई है। सुनती नही।
जो भाई लोग पीछे खड़े है वह आगे आ जाएँ कि उनकी भी तालियाँ सुनाई पड़े ,दिल को ठंडक पहुँचे। हम शायर कविगण तो इन्हीं तालियों के लिए जिंदा हैं , वाह वाह के चक्कर में सैकड़ॊ मील दूर यहाँ तक खीचे चले आते हैं । यही हम लोगों की संजीवनी है।इसी से जीते हैं । नहीं तो बिना वाह वाह के कविता सुनाने का क्या अर्थ , क्या जीना। घर पर श्रीमती जी को ही न सुना देते।
-प्यास ही मर गई जब भरी उम्र में---
अब अगली लाइन जो मैं पढ़ने जा रहा हूँ --उस पर आप ज़रूर वाह वाह करेंगे-- तालियाँ बजाएँगे। रोक न पायेगे अपने आप को ।न भी बजाएँगे तो अपने आप बज उठेगी आप की तालियाँ।
अगली लाइन है---पहली बार सुना रहा हूँ यहाँ -किसी सम्मेलन में आप ने नहीं सुनी होगी-- किसी ने ऐसी लाइन न लिखी न लिख पाएगा, न सुनाई ~- न सुना पाएगा -- सुना रहा हूँ-लाख टके की लाइन है--सुने
प्यास ही मर गई जब भरी उम्र में---
बड़े अच्छे से सुन रहे है-आप लोग -पहली बार इतने अच्छे श्रोता देखे ज़िंदगी में-- ऐसे श्रोता तो अमेरिका दुबई में भी नहीं दिखे--रसिक लाल जी ने अच्छा आयोजन किया है कि कुछ कवयित्रियों को बुला लिया मुझे भी बुलाया--काव्य-रसिक है-सरस्वती पुत्र है --माँ शारदे की कॄपा है उनपर ।- हां~ तो -सुनिए
’प्यास ही मर गई जब------
वाह वाह की आवाज़ ज़रा कम आ रही है --तालियाँ ज़ोर से बजाइए--- । मेरी अगली लाइन पर जो श्रोता
ताली नही बजाएँगे --तो बताए देता हूँ अगले जनम में वह चौराहे चौराहे तालियाँ बजाते नज़र आएँगे --ध्यान से सुने --
प्यास ही मर गई जब भरी उम्र में --
क्या भाई साहब घर से खा कर नहीं आएँ है क्या? -- ज़रा ज़ोर से बजाएँ- ताली -वाह वाह करें कि यह हाल गूँज जाए-
:प्यास ही मर गई जब -----
एक बार मैं दुबई गया था कविता पढ़्ने--जाने का मन तो नही मगर आयोजकों ने इतना जिद किया तो जाना ही पड़ा। वहाँ--क्या हुआ कि --। अब कवि जी 5-मिनट दुबई आख्यान सुनाने लगे और बीच बीच में वह लाइन भी सुनाते जा रहे थे--
-प्यास ही मर गई जब भरी उम्र मे- आधे घंटे से एक ही लाइन सुनाए जा रहे थे।
"दो साल पहले मैं अमेरिका में कविता पढ़ने गया था--"-वहाँ--। अब वह 5-मिनट अमेरिकी आख्यान सुनाने लगे--
श्रोताओं ने सोचा जब तक हम लोग की तालियाँ , वाह वाह न सुन लेगा ---यह मुआ जाएगा नहीं। यही घुमा्ता रहेगा। अत: सभी श्रोताओं ने समवेत स्वर से --वाह वाह वाह वाह -क्या खूब- क्या-खूब-करतल ध्वनि से,--तालियाँ बजाई। वाह वाह मज़ा आ गया---
अब ये बादल भी बरसे न बरसे तो क्या---
मारे खुशी के पढ़ गए--
अब ये ताली बजे ना बजे भी तो क्या !
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कुछ दिनो बाद उन्हीं आयोजको ने एक कवि सम्मेलन में मुझे भी निमंत्रित किया कविता पढ़ने को।
आयोजक : आइए पाठक जी ! स्वागत है । आप के चरणॊ से यहाँ की धरा धन्य हो गई ।अपावन हो गई मतलब पावन हो गई।,आप के साथ यह भाई जी कौन है? कवि हैं ? कविता पढ़ेगे?
मैने कहा : नहीं । मिश्रा जी है। मित्र हैं। मंच से यह मेरे लिए " तालियां" और "दाद" माँगेगे । मैं ज़रा ख़ुद्दार किस्म का कवि हूं न--भरी महफ़िल में हमसे हाथ फ़ैलाये नहीं जाते । इसलिए इन्हे साथ रखता हूं~ । कुछ ’पत्रम-पुष्पम" इन्हें भी--- हेे हें हें- ।सन्तोषी जीव हैं।
-आनन्द.पाठक-