एक व्यंग्य व्यथा : सर्टिफ़िकेट की रेवड़ी
’फेसबुक’ और ’ह्वाट्सअप’ के प्रादुर्भाव से एक फ़ायदा जरूर हुआ। लोगों की शिकायते दूर हो गईं कि हिंदी में उच्च लेखन कार्य नही हो रहा है। पाठक नही मिल रहे हैं। अब तो न लेखको की कमी है न पाठको की, न वाह वाह करने वालों की। न कवियों की न श्रोताओं की, न शायरों की न शायरा की । अब हर शख़्स यहाँ शायर हो गया कवि हो गया।--एक ढूंढों हज़ार मिलते हैं। जिनको नहीं दिखते उनको ये लोग आंख में उँगली डाल डाल कर दिखा देते हैं अरें भाई देखो मैं इधर हूँ ,इस पत्रिका में छपा हूँ, इस मंच पर काव्यपाठ कर रहा हूँ--उस मंच पर काव्यपाठ करने जा रहा हूँ। आइएगा ज़रूर। इस मंच से सम्मानित हुआ ,उस मंच से ’सर्टिफ़िकेट मिला। सूरज उग रहा है. आप को दिख नहीं रहा है तो मैं क्या करूँ ? मैं यहाँ हूँ।
आ0 गोपाल प्रसाद व्यास जी [एक कवि] ने एक बार कहा था--
कविता करना है खेल सखे!
जो चाहे इसमे चढ़ जाए , यह बे टी0टी0 की रेल सखे
कविता करना है खेल सखे !
-हाय कितने दूरदर्शी थे-दद्दा।
अब तो कविता क्या --फेसबुक और ह्वाट्सअप -पर ग्रुप बनाना समूह बनाना -- मंच बनाना --कितना आसान हो गया है खेल हो गया है। जो चाहे सो बना ले।जब चाहें तब बना लें। -अदब-ग़ज़ल--सुखन--कविता--गीत -के आगे पीछे कुछ एक दो शब्द ही तो लगाना है- राष्ट्रीय -अन्तरराष्ट्रीय-वैश्विक--कुछ भी -लगा देंगे।मंच तैयार। सदस्यों का क्या । जहाँ खोमचा लगा लेंगे--दो-चार-दस-बीस ग्राहक तो मिल ही जाएंगे।
-" कुछ करते क्यों नहीं ?--मिश्रा जी ने आते ही आते उचारा।
जो पाठकगण, मिश्रा जी के बारे में नहीं जानते हैं उन्हे संक्षेप में बता दूँ। वह मेरे साहित्यिक मित्र हैं जो मेरे हर व्यंग्य कथा में टपक पड़ते हैं जैसे के0पी0 सक्सेना जी की कथा में एक "मिर्जा" साहब आ जाया करते थे। मिश्रा जी मेरे लिए ’संकट सूचक’ भी होते है और "संकट मोचक" भी। कभी वह मेरे लिए संकट ले कर आते हैं कभी संकट मोच के आते है । इस बार ख़ुदा जाने क्या ले कर आए हैं।
-कुछ करते क्यों नहीं ?--पुन: दुहराया
’क्या करूँ जी ? मैने भी केजरीवाल जी की शैली में बड़े भोलेपन से पूछा।
अरे मुफ़्त की रेवड़ी -सर्टिफ़िकेट की रेवड़ी- बँट रही है -कुछ बटोरते क्यों नहीं। तुम तो पैदाइशी ’मुफ़्तखोर’ हो।
सोचा, बात तो सही कह रहा है बन्दा । ’बाथरूम’ में ही अपनी ग़ज़लें गाता रहूंगा तो ’ग़ालिब’कब बनूंगा? सर्टिफ़िकेट कब बटोरूँगा? दुनिया मुझे शायर कब मानेगी? बिना सर्टिफ़िकेट के कौड़ी के तीन ही रह जाएंगे। जल बिन मीन हो जाएँगे, श्रीहीन हो जाएँगे। लोग आगे निकल जाएँगे मैं क़लम ही घिसता रह जाऊँगा । हे मूढ़मते आनन्द! --जल्द कुछ अपने लिए सर्टिफ़िकेट-काव्य शिरोमणि-ग़ज़ल श्री-कविता गौरव-दोहा-पहलवान की व्यवस्था कर। शुभस्य शीघ्रम।अन्यथा इस असार संसार से बिना एक अदद 'सर्टिफिकेट' लिए ही 'टें' बोल जाएगा।
आत्मा की पुकार पर एक साहित्यिक मंच के कार्यालय में घुस गया ।रजिस्टर्ड मंच था --देखा 4-आदमी कुर्सी लगा कर बैठे थे ।अध्यक्ष -सचिव-संयोजक- एडमिन रहे होंगे। समवेत स्वर में स्वागत हुआ--आइए आइए पाठक जी स्वागत है । कुछ नया लिखा है तो सुनाइए कान तरस गए आप से कुछ नया सुनने को। सदियाँ बीत गईं।
मैने श्रद्धा से सर झुका लिया --हाँ हाँ ज़रूर ज़रूर । यहाँ आते आते रिक्शे पर ही एक नया शे’र हुआ -इंशाअल्ला यहाँ बैठे बैठे पूरी ग़जल भी हो जाएगी-सुनें ।
-इरशाद--इरशाद-- --
ज़रूरत थी, ज़रूरत है, ज़रूरत होगी--
वाह वाह ! वाह वाह -ऎडमिन साहब कुर्सी से उछल पड़े --क्या मिसरा है --सामयिक है। नए रंग का मिसरा है हर शख़्स को ज़रूरत है --रोटी कपड़ा मकान की
पाठक जी अब रुला ही देंगे क्या !
सचिव जी ने एक लम्बी आह भरी --सही कह रहे हैं पाठक जी ,
ज़रूरत है ज़रूरत है-जरूऽरत है--श्रीमती की , कलावती की --सेवा करे जो-पति की-किशोर कुमार ने भी गाया है-
-'इसीलिए कहता हूँ कि आप तो कम से कम शादी कर लीजिए--मेरा क्या-' अध्यक्ष महोदय ने उससे भी एक लम्बी और ठंडी आह भरी ।
परम्परानुसार मैने मिसरा दुहराया--"ज़रूरत थी ज़रूरत है ज़रूरत होगी-"-
वाह !क्या मिसरा कहा है। तीनो काल भूत--वर्तमान--भविष्य को एक ही मिसरा में समेट दिया--गागर में सागर भर दिया ।वैसे ये कौन सी बह्र है बाई द वे? -अध्यक्ष महोदय ने जानना चाहा।
अरे सर बह्र को मारिए गोली। तेल देखिए तेल की धार देखिए। आम खाने से मतलब है कि पेड़ गिनने से। बहर- वहर फ़ालतू लोगों के चोंचले हैं। अपुन तो भाव देखते हैं भाव की गूढ़ता देखते हैं-वाह वाह। मिसरा सानी पढ़िए पाठक जी! आगे पढ़िए । मिसरा सानी
मैने दूसरा मिसरा सुनाया--"एक अदद ’सर्टिफिकेट; की चाहत होगी"
वाह वाह वाह वाह क्या मिसरा सानी लगाया - वाह क्या क़ाफ़िया मिलाया --ज़रूरत का क़ाफ़िया --चाहत !नया क़ाफिया है वाह ।क्या साफ़गोई है --अब ऐसे साफ़ साफ़ बोलने वाले शायर मिलते कहाँ है -संयोजक महोदय ने मिसरा का भाव बताया-यानी
ज़रूरत थी ज़रूरत है ज़रूरत होगी--
एक अदद ’सर्टिफिकेट; की चाहत होगी
----सचिव जी! ज़रा ड्राअर के कोने कतरे देखना कोई सर्टीफिकेट-वर्टिफिकेट बचा है क्या ? अध्यक्ष जी ने पूछा
सचिव जी ने देखा। - सर एक सर्टिफिकेट बचा है--इस माह के श्रेष्ठ ग़ज़लकार -वाला।
-ठीक है। वही दे दो।
उन्होने जल्दी जल्दी नाम भरा हुआ सर्टिफिकेट मुझे सौंप दिया ? मैं गदगद हो हृदय तल से आभार प्रगट किया।
- सर मेरा नाम इस पर पहले से?-मैने आश्चर्य से पूछा।
हाँ हाँ मुझे मालूम था -एडवान्स में लिख कर रखा होगा-अध्यक्ष महोदय ने हंसते हुए कहा-
इक दिन तुम ज़रूर इधर आओगे
मयख़ाने से बच कर कहाँ जाओगे
---- मैं ’रेवड़ी’ ले कर बाहर निकल ही रहा था कि अध्यक्ष महोदय ने पीछे से आवाज लगाई
-- अरे पाठक जी ! सूखे सूखे !- हें हें हें -- देखिए "दान-पेटी' कुछ उदास दिख रही है । पेटी के भी " पेट" होते हैं--
दान पेटिका उदास है
आप से कुछ आस है
कुछ विमोचन कर दें
आप के जो पास है
आप तो जानते ही हैं कि ग्लासी पेपर , उस पर डिजाइन बनवाने का खरचा, फिर उसका कलर ”जीराक्स’ आजकल सब कुछ कितना मँहगा हो गया --चलिए आप से आप का नाम लिखने का कुछ नही लेते--मगर--
मैने जल्दी जल्दी दान पात्र में 'गुप्त दान' किया और चला आया -गुप्तदान महादान ।. न दुनिया को पता न पाठकगण को कि मैने कितना डाला।
ले कर 'रेवड़ी' घर को धाए।
दुनिया को हम नज़र तो आए--
जब तक आप लोग कुछ हिंदी साहित्य की दशा-दिशा सोचें - इस सर्टिफिकेट को ज़रा और लोगों को "टैग’ कर के आता हूँ --कि ले अब तू देख।
अस्तु
-आनन्द.पाठक-
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